पश्चिम
बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से
प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके
सामने प्रस्तुत है रचनाकार मुकेश सिंघानिया की एक कविता जिसका शीर्षक है “ये जिन्दगी”:
ये जिन्दगी भी क्या है भला जिंदगी कोई
मिलती है यूं कि जैसे मिले अजनबी कोई
तय फासलों के साथ मिली हर खुशी हमे
लगने लगी है अब तो ये खैरात सी कोई
किरदार सब निभाए है संजीदगी के साथ
हमने किसी से की न कभी दिल्लगी कोई
औकात बख्श करके
खुदा तौलता तुम्हें
मौका लपक ले कर ले जरा बेहतरी कोई
मजमा सा देखकर के जरा हम ठहर गए
नीलाम हो रहा था वहां आदमी कोई
छप्पर नही है आज भी हर आदमी के सर
राहत बंटी है खूब यहां कागजी कोई
किरदार आईने में
नजर आते ही नही
कितनी सफाई कर ले यहां जिस्म की कोई
रोने की हमको कोई इजाजत
नही मियां
चाहे हो जिंदगी में हमें बेबसी कोई
मिलती है यूं कि जैसे मिले अजनबी कोई
लगने लगी है अब तो ये खैरात सी कोई
हमने किसी से की न कभी दिल्लगी कोई
मौका लपक ले कर ले जरा बेहतरी कोई
नीलाम हो रहा था वहां आदमी कोई
राहत बंटी है खूब यहां कागजी कोई
कितनी सफाई कर ले यहां जिस्म की कोई
चाहे हो जिंदगी में हमें बेबसी कोई


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