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कविता: माँ (कमला सिंह 'महिमा', खोरीबाड़ी , दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है।  आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार कमला सिंह 'महिमाकी एक कविता जिसका शीर्षक है "माँ":

माँ जीती - जागती  ईश्वर की मूरत सी लगती है 
माँ के कदमों में जीवन भी  जन्नत सी लगती है 
उस माँ की ममता की कहो कैसे तारीफ़ करूँ ?
माँ है तो जीवन की राहें, शीतल छाँव-सी लगती है |
 
माँ के बिन जन्नत का , फूल भी शूल- सा लगता है 
माँ से बच्चों के दिल का, हर कोना आबाद रहता है
माँ ना हो तो बासंती हवाएँ, शुष्क पतझड़ सी लगती है
माँ है तो जीवन की हर राहें, आसान- सी लगती है |
 
माँ चंदन-सी पावन, अति मनभावन प्राणों का स्पंदन है 
माँ गीता कुरान, वेदों से महान, संस्कार व संरक्षण है 
माँ है तो सुनामी भी, चौखट पर आकर रूक जाती है 
माँ बच्चों की हर मुसीबतों में रक्षा कवच बन जाती है |
 
माँ बच्चों की हर अड़चन, स्वंय हँसकर सह जाती है
बच्चे को बचाने हेतु, यमराज से भी वह लड़ जाती है
माँ है तो मुर्झाये बागों में भी, हरियाली छा जाती है
माँ प्रेम की निश्चल-पावन-अथाह-समंदर सी लगती है |
 
प्रथम प्यार , प्रथम परीक्षा, आसमान-सी होती माँ
बसंत बहार, शीतल बयार, पर्व-त्योहार सी होती माँ
यशोदा, देवकी या कौशल्या; माता के हैं रूप अनेक
माँ की हर छवि में देखो , त्याग की देवी हीं बसती है |

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