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कविता: है मेरा राष्ट्र भारत ये (राघवेंद्र, लखनऊ, उत्तर प्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार राघवेंद्र की एक कविता जिसका शीर्षक है "है मेरा राष्ट्र भारत ये":

जहाँ कण कण में नवचेतना श्रृंगार है करती। 
जहाँ की उर्वरा भी दिव्य हुँकार है भरती। 
जहाँ के मंत्र की ध्वनि में है गूँजता आवाहन। 
जहाँ की लालिमा से प्रसन्नचित हो रहा है मन।
 
है मेरा राष्ट्र भारत ये, है मेरा राष्ट्र भारत ये। 
 
जहाँ की दिव्य ज्योति में है दिखती देश की आशा। 
जहाँ के प्रेम के पल्लव में है दिखती देश की भाषा। 
जहाँ का शिष्य अर्जुन सा जहाँ गुरु द्रोण सा होता। 
जहाँ के अंतःस्थल से वह पथ दृष्टिकोण सा होता।
 
है मेरा राष्ट्र भारत ये, है मेरा राष्ट्र भारत ये। 
 
जहाँ की बाँसुरी से है मधुर वह साज जब बजती।
जहाँ के कृष्ण मोहन संग में वह राधिका नचती। 
जहाँ की माँ के आँचल में स्वयं भगवान सोये हैं। 
जहाँ की मित्रता के वश में स्वयं भगवान रोये हैं। 
 
है मेरा राष्ट्र भारत ये, है मेरा राष्ट्र भारत ये। 
 
जहाँ वह जाह्नवी भी परम सुरलोक से आई। 
जहाँ स्वयं सत्य शिव ने भी यहाँ धुनी है रमाई।
जहाँ के वीर बलिदानी धरा को रक्त से सींचे। 
जहाँ के धर्म-शास्त्रों ने स्वयं ही प्रश्न हैं खींचे। 
 
है मेरा राष्ट्र भारत ये, है मेरा राष्ट्र भारत ये। 
 
जहाँ की दिव्य तलवारें यहाँ इतिहास हैं रचती। 
जहाँ की संस्कृति भी यहाँ दुल्हन सी है सजती। 
अशोक का वंशज और चंद्रगुप्त मौर्य हूँ मैं भी। 
उस अखण्ड भारत का एक शौर्य हूँ मैं भी।
 
है मेरा राष्ट्र भारत ये, है मेरा राष्ट्र भारत ये।