पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार सीमा गर्ग मंजरी की एक लघुकथा जिसका शीर्षक है “हाथ पसारना":
"बाबूजी... ! बाबूजी... !!
बाबूजी...! दस बीस रूपये दे दो... ।
मेरी माँ बहुत बीमार है उसके लिए दवा ले जानी है । "
मन्दिर की सीढीयों पर बैठे हट्टे-कट्टे नौजवान मैले-कुचैले कपडों मेंं लिपटे युवक ने गाँव के चौधरी दीनू काका से करूण स्वर में गुहार लगाई ।
"अरे....! अरे....!!
"ऊपर ही चढ़ा चला आ रहा है!
हट ... हट.... पीछे ...हट....
नहा धोकर पूजा करने के लिए झकाझक सफेद कुरता पाजामा पहने मन्दिर की सीढ़ियां चढ़ते हुए दीनू काका ने युवक को आँखें तरेरकर देखा।
किंतु वह युवक शायद सच कह रहा था उसे पैसों की सख्त जरूरत थी । अत: काका की डाँट डपट से भी वो रुका नहीं ।
हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए दीनू काका के संग ऊपर की ओर चढ़ने लगा।
पूजा करने के बाद
जब काका बाहर निकले तो उन्होंने उसे चारों ओर देखा वो वहीं एक कोने में निराश बैठा
था ।
काका ने उसे अपने पास बुलाया और कहा कि--
" तुम जवान जहान अच्छे-भले नवयुवक हो फिर भी लोगों के सामने हाथ पसारते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती ।छि ...! छि....!!
"तुम तो बहुत कर्मण्यहीन हो!"
"मेहनत करके दो जून की रोटी क्यों नहीं जुटाते ?
तुम्हारा ये भरा
पूरा शरीर बताओ तो किस काम आयेगा ?"
काका ने युवक को
डपटते हुए समझाने के भाव से कहा ।
युवक की आँखों में आँसू बहने लगे। उसने बताया कि --
"मेरी माँ बीमार है । गाँव के बाहर बाग के कोने में हमारी झोंपड़ी है । बीमार माँ वहीं लेटी है ।
लाॅक डाउन के कारण शहर में मेरी नौकरी छूट गयी थी और मैं खाली हाथ गाँव लौट आया ।
बीमार माँ के कारण यही सोच कर मन्दिर मेंं आया था कि अब भगवान कोई रास्ता दिखायेंगे ।
क्योंकि मुझे माँ की दवा के लिए पैसे चाहिए थे ।"
युवक की आँखों में सच्चाई देखकर काका ने कुछ सोचते हुए अपने मुनीमजी को आवाज लगाई ।
मुनीमजी से कहकर काका ने उसे अपने खेतों में कामगार के रुप में नौकरी पर रख लिया ।और उसे माँ का इलाज कराने के लिए कुछ पैसे दिये ।
भीख माँगने के स्थान पर माँ के इलाज के पैसे हाथ में देखकर युवक की आँखों में आँसू भर आये । कृतज्ञ युवक काका के चरणों में झुक गया ।
बाबूजी...! दस बीस रूपये दे दो... ।
मेरी माँ बहुत बीमार है उसके लिए दवा ले जानी है । "
मन्दिर की सीढीयों पर बैठे हट्टे-कट्टे नौजवान मैले-कुचैले कपडों मेंं लिपटे युवक ने गाँव के चौधरी दीनू काका से करूण स्वर में गुहार लगाई ।
"अरे....! अरे....!!
"ऊपर ही चढ़ा चला आ रहा है!
हट ... हट.... पीछे ...हट....
नहा धोकर पूजा करने के लिए झकाझक सफेद कुरता पाजामा पहने मन्दिर की सीढ़ियां चढ़ते हुए दीनू काका ने युवक को आँखें तरेरकर देखा।
किंतु वह युवक शायद सच कह रहा था उसे पैसों की सख्त जरूरत थी । अत: काका की डाँट डपट से भी वो रुका नहीं ।
हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए दीनू काका के संग ऊपर की ओर चढ़ने लगा।
काका ने उसे अपने पास बुलाया और कहा कि--
" तुम जवान जहान अच्छे-भले नवयुवक हो फिर भी लोगों के सामने हाथ पसारते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती ।छि ...! छि....!!
"तुम तो बहुत कर्मण्यहीन हो!"
"मेहनत करके दो जून की रोटी क्यों नहीं जुटाते ?
युवक की आँखों में आँसू बहने लगे। उसने बताया कि --
"मेरी माँ बीमार है । गाँव के बाहर बाग के कोने में हमारी झोंपड़ी है । बीमार माँ वहीं लेटी है ।
लाॅक डाउन के कारण शहर में मेरी नौकरी छूट गयी थी और मैं खाली हाथ गाँव लौट आया ।
बीमार माँ के कारण यही सोच कर मन्दिर मेंं आया था कि अब भगवान कोई रास्ता दिखायेंगे ।
क्योंकि मुझे माँ की दवा के लिए पैसे चाहिए थे ।"
युवक की आँखों में सच्चाई देखकर काका ने कुछ सोचते हुए अपने मुनीमजी को आवाज लगाई ।
मुनीमजी से कहकर काका ने उसे अपने खेतों में कामगार के रुप में नौकरी पर रख लिया ।और उसे माँ का इलाज कराने के लिए कुछ पैसे दिये ।
भीख माँगने के स्थान पर माँ के इलाज के पैसे हाथ में देखकर युवक की आँखों में आँसू भर आये । कृतज्ञ युवक काका के चरणों में झुक गया ।