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कविता: परिवार तब और अब (नरेंद्र सिंह, मोहनपुर, अतरी गया, बिहार)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार नरेंद्र सिंह की एक कविता  जिसका शीर्षक है “परिवार तब और अब”:

घर मकान तो सब खूब बनाये ,बनाये सब आलीशान

पर मानवता आज खो गयी कहीं ,हृदय हुआ पाषाण

भव्यता के चक्कर मे आज, कितना बदल गया इंसान

पहले घर गुलजार था कितना, आज हुआ सुनसान

टूट टूट कर सब बिखर गए , आज सभी हुए एकाकी

आज के बच्चे किसे कहे, दादा दादी ,काका काकी

तीन पीढ़ियों से खचाखच , भरा होता था घरबार

पर आज पत्नी बच्चे को सिर्फ कहते है परिवार

बुजूर्ग कितना महफूज थे ,जब था संयुक्त परिवार,

 बुढ़ापे की चिंता नही थी उन्हें,अनेक थे खेवनहार

उसके बच्चे को भाई खेलाए,वो खेलाए भाई के बच्चे

कितना अद्भुत प्रेम था सबमें,दिल के सब थे सच्चे

पहले घर मन्दिर था,पर आज घर को बनाया ठिकाना

जहां शांति प्रेम की चिता जले,चाहे पैसे से भूख मिटाना

चचेरे, फुफेरे, ममेरे से आज,सब कोई बन रहा अनजान

ससुराल के रिश्ते सिर्फ  ही बचे ,जिस पर  सब कुर्बान

घर मकान  तो खूब बनाये ,बनाये सब आलीशान।

पर मानवता आज खो गयी कहीं,हृदय हुआ पाषाण।