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कविता: मन के उद्गार (महेन्द्र सिंह 'राज', मैढीं, चन्दौली, उत्तर प्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार महेन्द्र सिंह 'राज' की एक कविता  जिसका शीर्षक है “मन के उद्गार”:

नहीं चाहिए मुझे प्रशस्ति

नहीं चाहिए पुरस्कार,

मेरी कृतियों को पढकर

गर होता है जन मन में सुधार

तो धन्य समझेंगे निज को

यह जीत मन की, ना हार

यह मेरे मन का उद्गार

नहीं  चाहिए पुरस्कार।

 

रचना वो होती  है जो

जन गण मन उद्वेलित कर दे

लोभ मोह मद काम क्रोध से

जन गण मन दूर कर दे

सुसंस्कृत  भाषा हो सबकी

खुशियों से पूरित हो संसार

यह मेरे मन का उद्गार

नहीं  चाहिए पुरस्कार।

 

साहित्य बने माध्यम सुधार का

कृतियों में सद्गुणका आदर हो

दुष्प्रवृत्तियों का करें विरोध

दुर्गुण से  भरा न गागर हो

कृतियां ऐसी होनी चाहिए

जो जन जन में भरे संस्कार

यह मेरे मन का  उद्गार

नहीं  चाहिए  पुरस्कार ।

 

हर सृजनों का हर  छन्द

मानवता का पाठ पढाता हो

सत्तपथ को इंगित करता हो

जन गण में प्यार जगाता हो

जो रचना विष बेल उगाए

उसका सब मिल करो दुत्कार

यह मेरे मन  का उद्गार

नहीं  चाहिए पुरष्कार ।

 

जाति धर्म में  प्रेम बढ़े

सब जन सुख समृद्धि पाएं

मानवता का नित पूजन हो

बुरे विचार मन में ना आएं

नयी नयी कृतियां सृजित हो

भर जाए साहित्य भण्डार

यह मेरे मन  का उद्गार

नहीं  चाहिए  पुरस्कार ।

 

सरस्वती की करो साधना

मिट जाए मन का विकार

हर जन मन पढ मुदित हो

खुशियों से भरे दिल आगार

कृतियों  का  कृतिमान  बढ़े

हर जन समझे कविता सार

यह  मेरे मन का उद्गार

नहीं  चाहिए  पुरस्कार ।