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कविता: विश्वास रख माँ (राधा गोयल, विकासपुरी, दिल्ली)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार राधा गोयल की एक कविता  जिसका शीर्षक है “विश्वास रख माँ”:


माँ माँ
ओ मेरी धरती माँ
ये तुम्हारा कैसा स्वरूप हो गया है?
सारी रंगत कहाँ खो गई?
कैसे खो गई?
इतनी दरारें कैसे पड़ गईं?
 
क्या तुम नहीं जानते मेरे बच्चे?
कुछ धनलोलुप लोगों ने
मेरा यह हाल किया है।
मैंने तो मानव को उपहार में सुन्दर वन दिया था।
वन औषधियों का अकूत खजाना दिया था।
देवदार और शीशम जैसे मजबूत लकड़ी पैदा करने वाले पेड़ दिये थे।
नाना प्रकार के फल और फूलों वाले असंख्य पेड़ों का खजाना दिया था।
मानव कहलाने वाले जीव ने सारे जंगल काट डाले,
सारे तालाब पाटकर कंक्रीट के महल खड़े कर दिए।
कोई पेड़ नहीं बचा तो छाँव कहाँ से आएगी?
पंखी कहाँ बसेरा बनायेंगे?
थका हुआ पथिक कहाँ से छाँव पाएगा,
मेरे गर्भ में पीतल- तांबा- सोना- हीरा- स्टील और अभ्रक की खदानें थीं।
उसने मेरे गर्भ की ऐसी चीर-फाड़ की...
कि मैं बेहद त्रस्त हो गई हूँ। 
औद्योगिक कचरे ने मेरी नदियों के पानी को इतना प्रदूषित कर दिया है,
कि वह पीने तो क्या,
नहाने तक के लायक नहीं है।
मैं अपने बच्चों की यह दशा देखकर अकुला रही हूँ।
देख रहे हो ना मेरे शरीर पर पड़ी हुई ये झुर्रियाँ?
कभी मैं बाढ़ में भीगी रहती हूँ,
तो कभी भीषण गर्मी से चटक जाती हूँ।
मानव को कितनी बार चेतावनी दे चुकी हूँ,
लेकिन वह सुनने को ही तैयार नहीं है।
यदि मैं अपनी पर आ गई
तो सम्पूर्ण विश्व का विनाश कर दूँगी।
 
ना ना माते!
ऐसा मत करना।
सभी तो एक जैसे नहीं होते हैं ना?
आज तो सारा विश्व ही इस बात को समझ गया है।
अब तुझ पर कोई अत्याचार नहीं करेगा।
आज तेरे बहुत सारे बेटों ने संकल्प लिया है,
दोबारा से हरे भरे जंगलों का विकास करेंगे।
पुराने तालाबों को खोज कर उन्हें पुनर्जीवित करेंगे।
तुझसे भी उतना ही लेंगे,
जितने की जरूरत है।
नदियों को भी पूरे प्राण-प्रण से साफ करने के लिये सभी श्रमदान करेंगे।
विश्वास रख माँ!
तेरा बेटा शपथ खाता है।
तेरा रूप फिर से पहले जैसा होगा।
चल! अब अपनी आँखों से आँसू पोंछ
और अपने बेटे के माथे पर
अपने आशीर्वाद का चुम्बन दे।

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