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कविता: पथ के पथिक (मोहन लाल सिंह, सिकटिया, सारठ, देवघर, झारखंड)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार मोहन लाल सिंह की एक कविता  जिसका शीर्षक है “पथ के पथिक”:
 
चाहतों के संग के पथिक बन
स्वप्निल सपनों संग जीना चाहता हू ।।
पक्षी मन पंख लगाकर आसमां तक उड़ान भरना चाहता हू ।।
पथ के पथिक बन, नेह राग अपनाना चाहता हू ।।
हौसला का पंख सजा,
पथ के पथिक बन जाना चाहता हू ।।
चाहता हू एक पथिक बन
उच्च दृष्टिकोण बना लूं ।।
ढूंढकर गह्वर हृदय से
शब्द मोती चुन लाऊँ ।।
पर जितना ढूँढता हू और
पिपासा बढ़ते जाता ।।
कुण्डलिनी से शब्द टकराकर
दिव्य ज्योति लौ सजाता ।।
वाह आनंदित मन नीले रंग की
आसमां देख हृदय बाग बाग हो जाता ।।
पुनः तरंगित दिव्य लौ गगन से टकराकर अंतस आया ।।
वो क्षण क्या विहंगम! शब्द नहीं मैं जो कहा जाता!
रह रह कर उठ तरंगित मन से कहता ।।
एक कदम तू आगे बढ़कर
सोच मेरे नौनिहालों, पथ के पथिक बन ।।
पद चिन्ह पर चलकर तू
विवेकानंद राह सजा लो ।।
है जरूरत देश को ऐसा विचार बना लो ।।
है सफेद बाल नहीं तो क्या हुआ ।
दिव्य मानव बनकर
देश के राहों को सजाओ ।।
अखंड भारत राग बनाकर
देश विश्व विजयी बना लो ।।
तेरे सपने मेरे सपने सब से सुन्दर पथ पथिक बन ।।
दूर क्षितिज पर सितारे
कर प्रतिक्षा पथ पथिक पर ।।
चाँद सितारे भी चाहते
स्वर्ग भारत वषॅ बना लो ।।
विश्व गुरु भारत बनाकर
शांति का संदेशा लाओ ।।
गढकर एक उच्च आलोक
घर-घर आलोकित कर दो ।।
मेरे आकांक्षा के पथ के पथिक
तू महामानव बन जाओ ।।