पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद
पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल
फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
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है। आज
आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार महेन्द्र सिंह 'राज' की एक कविता जिसका
शीर्षक है “कृष्ण, राधा के विरह में ”:
जब मैं आता बरसाने में
दिखती ना वृषभानु लली
चहुँ दिशि देख के हार थका
मिलती ना वो व्रज की कली
राधा के बिन लगता है सूना
मधुवन अरू बरसाने गली
मैं तो राधा विरह में पागल
कहाँ गई मुझे छोड़ छली।।
मेरी राधा का अद्य पता
वृषभानु भवन छिपी है वो
या कुन्जन की ओट लता
ढूंढ ढूंढ कर हार थका मैं
विरह व्यथा सही ना जाय
क्या मेरे दिल की हालत है
शब्दों में वह कही न जाय।।
आजा तूं वृन्दावन में
तेरे बिन कुछ नीक न लागे
तूं ही बसती मेरे मन में
तूं कह दे तो मुरली छोडू
जिसको तू सौतन समझे
अब तो विरह सही ना जाय
वियोग की आग लगी तन में।।
समझा के कांधा को हार थके
ग्वाल बाल अरू मित्र सुदामा
भी कांधा की जिदना टार सके
सखियां समझा रहीं राधा को
अब तूं ही अपनी जिद छोड
तेरे बिन कोई ना जग में
जो कान्हा पे डोरे डाल सके।