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कविता: विजयादशमी (ललिता पाण्डेय, दिल्ली)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार ललिता पाण्डेय  की एक कविता  जिसका शीर्षक है “विजयादशमी”:
 
क्या संग रावण के बुराइयों का
अंतिम संस्कार हो गया
या रक्त बीज सी कुछ बूंदे धरा में भी रह गई।
जो घुल गई मानवता में पशुता बनकर
बन रही हैं दिन-प्रतिदिन और घातक
जन्म दे रही हैं रावण को पुनः
और ये रूप हैं और भी भयंकर।
 
कंपित होती मानवता,
शर्मसार होती सज्जनता
लोभ,हिंसा,अंहकार,ईष्या जड़े अपनी प्रसार रहा
हर मानव के हदय में एक कोर इनका भी रहा।
 
जला रहे रावण हर वर्ष
अद्भुत उत्साह के साथ
पर नही जला पाय हदय-पटल से
रावण रूपी बीजों को
जो पनप रहे हैं प्रतिपल
ईष्या रूपी खाद अंहकार रूपी जल से
होगा दमन जब मानव के इस रूप का
तब होगी अच्छाई की जीत बुराई में।
 
छोड़ो मन का कोप
कर दो उसका भी अंतिम संस्कार इस विजयदशमी में।
न कंस हमें प्यारा था,न हिरण्यकच्छप,न रावण
ये राम,कृष्ण,प्रह्लाद की धरा हैं
यहाँ सत्य की जीत असत्य की हार होती हैं।
देर जरूर होती हैं पर जीत होती हैं।