पश्चिम
बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से
प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके
सामने प्रस्तुत है रचनाकार महेन्द्र सिंह 'राज' की एक कविता जिसका शीर्षक है “नारी तूं रण्चण्डी
बन जा”:
नारी अब तूं चण्डी बन जा
अपने हस्ते तलवार उठा
अबला पर्याय है नारी का
इस लोकोक्ति कोतूं झुठला।
अब तक कभी न माना है
नारी को शोषित रखने का
संकल्प ही मन में ठाना है।
इन्द्रने क्या गलती बेचारी की
शाप से शिला बनी अहिल्या
यह कथा पतिव्रता नारी की।
पतिव्रता अतुल,धार्मिक नार
नारायण छल किए संग में
बन गई तुलसी कलकंठ हार।
निज नारी धरम निभाने को
रावण हरण किया छल से
अपनी पट- रानि बनाने को।
अग्नि परीक्षा ले अवध लाए
एक धोबी के व्यंग बानि सुन
गर्भावस्था में वनवास पठाए
सत्यवती संग अभिचार किया
पाराशर का तेज व्यास बन
भरत - वंश विस्तार किया।
पत्थरदिलभी द्रवित हो जाते हैं
धर्मराज युधिष्ठिर द्रोपदी को
द्यूत पर दाव लगा हार जाते हैं।
अनावृत का प्रयास कराते हैं
वासुदेव सुत रक्षक बन कर
द्रुपद सुता की लाज बचाते हैं।
सैनिकों में गोरी से फेकी जाती हैं
रानी पद्मिनी हजारों सखियों संग
खुद को भी अनल लगा जाती है।
घटनाएं हद से भी पार हो रही
दहेज हत्या बलात्कार हत्या की
निर्मम घटनाएं बारम्बार हो रही।
वैदिक संस्कृति अपनाना होगा
पाश्चात्य सभ्यता को दे तिलांजलि
लोगोंं को संस्कारित बनाना होगा।
सबला बने, भौडे प्रेम से दूर रहे
अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को
बनकर रण चण्डी खुद दूर करे।
निज हाथों में खड्ग उठाना होगा
जो नापाक हाथ बढे नोचने उसको
निज हाथों यमलोक पहुंचाना होगा।।