पश्चिम
बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से
प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके
सामने प्रस्तुत है रचनाकार डॉ● अवधेश कुमार “अवध” की एक कविता जिसका
शीर्षक है “बूढ़ा राष्ट्रनायक बाबू कुँवर सिंह”:
धन्य अजय जोरावर चंदन, धन्य फतेह सुवर्ग।
ऋषियों में भी अग्रपूज्य हो गए दधीचि व गर्ग।
माँ को पता जरूरत जैसी, वैसे हुए सपूत-
धन्य-धन्य माँ वीर प्रसूता, धन्य धन्य उत्सर्ग।।
पंचरतन-साहबजादा
की, गोदी
आया लाल।
भोजराज परमार वंश के, पूर्वज हुए निहाल।
कुलदीपक यह गया बाप पर, सिंहासन मुस्काय-
गूँज उठी सुन दशों दिशाएँ, महाकाल जय काल।।
मिली बधाई आरा
छपरा, भोजपुर डुमराँव।
जैसे ग्रीष्मकाल में भाती, पीपल वाली छाँव।
ईस्ट इंडिया कम्पनी के, नये-नये कर भार-
देख कुँवर हो गए क्षुब्ध अति, दारुण अपने गाँव।।
हिरण मेष गज सिंह
कुशलता, स्वर पटुता माधुर्य।
नभ में लौकिक नक्षत्रों में, सबसे दीपित सूर्य।
दयानन्द तुलसी रामानुज, संत विवेकानन्द-
सर्वगुणी सम्पन्न कुँवर अति,बुद्धिमान चातुर्य।।
अंग्रेजों से
काम कराने में
माहिर उस्ताद।
जनता के सुख-दुख में शामिल,सुनते हर फरियाद।
किन्तु किसी के द्वारा खंडित हो नारी सम्मान-
उसका निर्णय खड्ग करेगी, वीर कुँवर के नाद।।
धन लूटा, इज्जत भी लूटी, मारा अली फकीर।
सत्ता मद में गोरे भूले, असहायों की पीर।
गुस्से को काबू कर बैठा था बूढ़ा यह शेर-
मंगल के दंगल ने तोड़े, सब्र - नदी के तीर।।
श्वेत अश्व पर हो
सवार ये, गढ़ते नये तिलिस्म।
फिर से चढ़ी जवानी जैसे, फौलादी था जिस्म।
अस्सी की थी उम्र और रण कौशल छापामार-
उतरें हो ज्यों कुरुक्षेत्र में, वीर पितामह भीष्म।।
एक हाथ
बंदूक दूसरे में
सोहै तलवार।
जिधर घूमती दृष्टि उधर मच जाता हाहाकार।
केनिंग के कुनबे में गूँजी, बब्बर शेर दहाड़-
वीर कुँवर से सात बार खायी गोरों ने हार।।
वीर शिवा की
छद्मनीति से, करते भीषण युद्ध।
महासमर के महारथी ज्यों, कूटनीति के बुद्ध।
अंग्रेजों को समझ न आती, वीर कुँवर की चाल-
जिसने केनिंग की कर डालीं, सब राहें अवरुद्ध।।
जिसके लिए गवर्नर
जनरल, खोया आपा चैन।
अन्तहीन अंधेरी रातें, करती थीं बेचैन।
सपनों में भी सिंह देखकर, जाता अक्सर जाग-
खारे जल से भर जाते थे, प्रायः उसके नैन।।
सोचा करता छोड़
नौकरी, भागूँ अपने देश।
ओले पड़ने शुरु हो गए, अभी मुड़ाया केश।
अगर सिंह को रोक न पाया, मेरी होगी मौत-
जाने कितने रूप रंग हैं, कितने उसके वेश।।
भारत में चहुँ ओर
दिखाई, देता बब्बर शेर।
किस मिट्टी से बना हुआ है, नाहर वीर दिलेर।
सभी लड़ रहे स्वयं स्वार्थ में, कुँवर देश के हेतु-
जिसके कारण होते मेरे, स्वप्न निरन्तर ढेर।।
एक एककर लाल
सिपाही, रहा समर में मार।
एक शेर यह लाख शेर सम, भरता है हुंकार।
यह हम्मीर या बप्पा रावल या विक्रम आदित्य-
विजयश्री पहनाती इसको, सदा विजय के हार।।
इसके जैसा इसका
भाई बढ़कर रिश्तेदार।
पर्वत जैसा अमर शूरमा, बेनी सिंह सवार।
इनके रण कौशल के सम्मुख, छक्के जाते छूट-
लगता महाकाल आये हैं, करने को संहार।।
सच्चाई है अब
भारत से, उखड़ रहे हैं पाँव।
क्षीण हो रही शक्ति हमारी, नहीं मिलेगी छाँव।
रुका नहीं गर वृद्ध बहादुर, कर देगा आखेट-
अथवा हमको बाँध बिस्तरा, जाना होगा गाँव।।
कानपुर में नाना
साहब को पहनाये ताज।
लखनऊ की बेगम को था, इनके ऊपर नाज।
बाबू बेनी माधव लगते, सच्चे रिश्तेदार-
डेढ़ वर्ष तक छीना जिसने, अंग्रेजों से राज।।
दशों दिशाओं में
दिखता था,
अंग्रेजों को शेर।
युद्धभूमि पल में पट जाती, गोरे होते ढेर।
तेज कहाँ थी तोपों में जो, चले वीर के संग-
मारे जाते लाल सिपाही, हेर घेर बिनु देर।।
अतरौलिया युद्ध
हुआ ज्यों, महाकाल का खेल।
काल-गाल में अंग्रेजों को, मौत रही थी ठेल।
कभी जीत में हार छिपी थी, कभी हार में जीत-
कसती जाती थी दुश्मन पर,घातक कुँवर नकेल।।
लुका छिपी के रण
कौशल का, हुआ अजूबा अंत।
जैसे पावस में खिल जाए, सहसा मधुर बसंत।
दो खेमों में बँटे सिपाही, अरिदल बूझ न पाय-
जीभ सरिस फँस गई कम्पनी, घेरे बत्तिस दंत।।
वीर कुँवर सिंह
चकमा देकर, बढ़े जान्हवी तीर।
हार-हारकर बढ़ती जाती, अंग्रेजों की पीर।
डगलस पीछा करता लेकिन, सात मील था दूर-
भेद खोल दी मुखवीरों ने, गोरे हुए अधीर।।
बार बार वह झेल
चुका था, दोनों दल के कोप।
कभी सिंहवर होते सम्मुख, सहसा होते लोप।
वीर शिवा राणा अम्बर से, लुटा रहे थे नेह-
ठगा ठगा सा दौड़ रहा था, डगलस लेकर तोप।।
ब्रिगेडियर धोखे
से छिपकर,
गोली दिया चलाय।
वीर कुंवर ने गंग धार में, निज कर दिया चढ़ाय।।
इधर देखता रहा शत्रुदल, सिंह गया उस पार-
मिला धूल में जैक यूनियन, केसरिया लहराय।।
अंग्रेजी पल्टन
हारी पर, शेर हुआ कमजोर।
एक हाथ से हीन बहादुर, क्षीण हो रहा जोर।
जहर फैलने से योद्धा यह, हुआ बहुत बीमार-
आशावादी आँखें देखीं, अनुज अमर की ओर।।
अमर सिंह
ने दिया भरोसा, सदा रहेगी आन।
दोनों भाई की दो देहें, किन्तु एक थे प्रान।
मुख पर गजब तेज छाया था, शान्ति हृदय संतोष-
अनुज अमर की बाँहें पकडे,कुँवर किये प्रस्थान।
भारत माता
की गोदी में, सोया पुत्र महान।
अंग्रेजी सत्ता पर टूटा था बनकर तूफान।
अपने और पराये दोनों, सादर किए प्रणाम-
राष्ट्रवाद का अद्भुत नायक, अतुलनीय बलिदान।।
धन्य अजय जोरावर चंदन, धन्य फतेह सुवर्ग।
ऋषियों में भी अग्रपूज्य हो गए दधीचि व गर्ग।
माँ को पता जरूरत जैसी, वैसे हुए सपूत-
धन्य-धन्य माँ वीर प्रसूता, धन्य धन्य उत्सर्ग।।
भोजराज परमार वंश के, पूर्वज हुए निहाल।
कुलदीपक यह गया बाप पर, सिंहासन मुस्काय-
गूँज उठी सुन दशों दिशाएँ, महाकाल जय काल।।
जैसे ग्रीष्मकाल में भाती, पीपल वाली छाँव।
ईस्ट इंडिया कम्पनी के, नये-नये कर भार-
देख कुँवर हो गए क्षुब्ध अति, दारुण अपने गाँव।।
नभ में लौकिक नक्षत्रों में, सबसे दीपित सूर्य।
दयानन्द तुलसी रामानुज, संत विवेकानन्द-
सर्वगुणी सम्पन्न कुँवर अति,बुद्धिमान चातुर्य।।
जनता के सुख-दुख में शामिल,सुनते हर फरियाद।
किन्तु किसी के द्वारा खंडित हो नारी सम्मान-
उसका निर्णय खड्ग करेगी, वीर कुँवर के नाद।।
सत्ता मद में गोरे भूले, असहायों की पीर।
गुस्से को काबू कर बैठा था बूढ़ा यह शेर-
मंगल के दंगल ने तोड़े, सब्र - नदी के तीर।।
फिर से चढ़ी जवानी जैसे, फौलादी था जिस्म।
अस्सी की थी उम्र और रण कौशल छापामार-
उतरें हो ज्यों कुरुक्षेत्र में, वीर पितामह भीष्म।।
जिधर घूमती दृष्टि उधर मच जाता हाहाकार।
केनिंग के कुनबे में गूँजी, बब्बर शेर दहाड़-
वीर कुँवर से सात बार खायी गोरों ने हार।।
महासमर के महारथी ज्यों, कूटनीति के बुद्ध।
अंग्रेजों को समझ न आती, वीर कुँवर की चाल-
जिसने केनिंग की कर डालीं, सब राहें अवरुद्ध।।
अन्तहीन अंधेरी रातें, करती थीं बेचैन।
सपनों में भी सिंह देखकर, जाता अक्सर जाग-
खारे जल से भर जाते थे, प्रायः उसके नैन।।
ओले पड़ने शुरु हो गए, अभी मुड़ाया केश।
अगर सिंह को रोक न पाया, मेरी होगी मौत-
जाने कितने रूप रंग हैं, कितने उसके वेश।।
किस मिट्टी से बना हुआ है, नाहर वीर दिलेर।
सभी लड़ रहे स्वयं स्वार्थ में, कुँवर देश के हेतु-
जिसके कारण होते मेरे, स्वप्न निरन्तर ढेर।।
एक शेर यह लाख शेर सम, भरता है हुंकार।
यह हम्मीर या बप्पा रावल या विक्रम आदित्य-
विजयश्री पहनाती इसको, सदा विजय के हार।।
पर्वत जैसा अमर शूरमा, बेनी सिंह सवार।
इनके रण कौशल के सम्मुख, छक्के जाते छूट-
लगता महाकाल आये हैं, करने को संहार।।
क्षीण हो रही शक्ति हमारी, नहीं मिलेगी छाँव।
रुका नहीं गर वृद्ध बहादुर, कर देगा आखेट-
अथवा हमको बाँध बिस्तरा, जाना होगा गाँव।।
लखनऊ की बेगम को था, इनके ऊपर नाज।
बाबू बेनी माधव लगते, सच्चे रिश्तेदार-
डेढ़ वर्ष तक छीना जिसने, अंग्रेजों से राज।।
युद्धभूमि पल में पट जाती, गोरे होते ढेर।
तेज कहाँ थी तोपों में जो, चले वीर के संग-
मारे जाते लाल सिपाही, हेर घेर बिनु देर।।
काल-गाल में अंग्रेजों को, मौत रही थी ठेल।
कभी जीत में हार छिपी थी, कभी हार में जीत-
कसती जाती थी दुश्मन पर,घातक कुँवर नकेल।।
जैसे पावस में खिल जाए, सहसा मधुर बसंत।
दो खेमों में बँटे सिपाही, अरिदल बूझ न पाय-
जीभ सरिस फँस गई कम्पनी, घेरे बत्तिस दंत।।
हार-हारकर बढ़ती जाती, अंग्रेजों की पीर।
डगलस पीछा करता लेकिन, सात मील था दूर-
भेद खोल दी मुखवीरों ने, गोरे हुए अधीर।।
कभी सिंहवर होते सम्मुख, सहसा होते लोप।
वीर शिवा राणा अम्बर से, लुटा रहे थे नेह-
ठगा ठगा सा दौड़ रहा था, डगलस लेकर तोप।।
वीर कुंवर ने गंग धार में, निज कर दिया चढ़ाय।।
इधर देखता रहा शत्रुदल, सिंह गया उस पार-
मिला धूल में जैक यूनियन, केसरिया लहराय।।
एक हाथ से हीन बहादुर, क्षीण हो रहा जोर।
जहर फैलने से योद्धा यह, हुआ बहुत बीमार-
आशावादी आँखें देखीं, अनुज अमर की ओर।।
दोनों भाई की दो देहें, किन्तु एक थे प्रान।
मुख पर गजब तेज छाया था, शान्ति हृदय संतोष-
अनुज अमर की बाँहें पकडे,कुँवर किये प्रस्थान।
अंग्रेजी सत्ता पर टूटा था बनकर तूफान।
अपने और पराये दोनों, सादर किए प्रणाम-
राष्ट्रवाद का अद्भुत नायक, अतुलनीय बलिदान।।