पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद
पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल
फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत
है। आज
आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार राजाराम स्वर्णकार की एक कविता जिसका
शीर्षक है “हे माँ”:
मैं मनीषा बोल रही
हा मैं हाथरस से बोल रही
ना मैं हिंदू ना मुस्लिम
हा मैं निर्भया बोल रही
मर चुकी हर बेटी बोल रही
मन की गांठे खोल रही
लाशों के ढेरों पर सोई हूँ
चीखती पुकारती बोल रही
मेरी अंतरात्मा घायल है
मेरा सुनने वाला कोई नही
अपनी मन की गांठे खोल रही
मुझे उठाया जायेगा
झाड़ियों में ले जायेगा
जानवरों की तरह पीटा जायेगा
मेरे जिस्म को जलाया जायेगा
मेरे होठों से हांसी छीना जायेगा
इससे पहले अपना वजूद खो दु
मुझे अपनी कोख में ही मार दे
इन्सानों के भेष में दरिंदे जला देंगे
मुझे नोचा जाये खरोंचा जाएं
मेरे बालों पकड़कर घसीटा जाये
मेरे कलाइयों को मरोड़ा जाये
मेरे दुपट्टे से ही हाथ बांधा जाये
मत पैदा कर मुझे इस दुनिया में
कपड़ा रहतें हुऐ भी नंगा हो जाऊ
मुझे अपनी कोख में ही मार दे
मेरा अस्मिता लूट लिया जायेगा
फिर लोग मेरे नाम पर
हर गली चौराहे सड़क मार्ग पर
केंडल मार्च निकालेंगे
जोर शोर से आवाज उठेगी
फिर टीवी पर डिबेट होगी
इससे पहले तेरा भी नाम आ जाये
हे माँ मुझे अपनी कोख में ही मार दे ।