पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद
पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल
फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत
है। आज
आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार मुकेश सिंघानिया की एक कविता जिसका
शीर्षक है “अब नही आते कहीं
छत पर परिंदे”:
क्या बताएँ क्या हुआ है अब खुशी को
कैसे दें इल्ज़ाम कुछ भी इस सदी को /1/
गल्तियां कुछ तो
यकीनन ही हुई है
जो भुगतना पड़ रहा है आदमी को /2/
गर बनाना
है सहल जीने
का रस्ता
गौर करना छोड़ दो तुम बतकही को /3/
क्या हुआ
हालात बिगड़े हैं
जरा तो
अहमियत मत दो जरा भी खुदखुशी को /4/
प्यास समंदर को
भी लग सकती कभी है
क्या खयाल आया कभी भी ये किसी को /5/
वक्त कुरियर
से कहो तो
भेज दें हम
अब बहाने मत करो तुम वापसी को /6/
कर लिया
बर्बाद हिस्सा उम्र
का इक
और कितना दें तवज्जो अजनबी को /7/
चांद है
मिट्टी का इक
धेला सरीखा
ये मगर कहना नही तुम चांदनी को /8/
हमने माना था
अहम दिल की लगी को
अहमियत तुमने मगर दी दिल्लगी को /9/
लग रहा
उनींदी सा सूरज
सवेरे
रात भर ताका किये हैं क्या किसी को /10/
रात सिरहाने
खड़े थे ख्वाब
सारे
पर इजाजत थी न आने की किसी को /11/
अब नही
आते कहीं छत
पर परिंदे
दाने भी रखते नही देखा किसी को /12/
जिंदगी है
बे बहर बे काफिया सी
ना मुकम्मल सा मिला मिसरा खुदी को /13/
क्या बताएँ क्या हुआ है अब खुशी को
कैसे दें इल्ज़ाम कुछ भी इस सदी को /1/
जो भुगतना पड़ रहा है आदमी को /2/
गौर करना छोड़ दो तुम बतकही को /3/
अहमियत मत दो जरा भी खुदखुशी को /4/
क्या खयाल आया कभी भी ये किसी को /5/
अब बहाने मत करो तुम वापसी को /6/
और कितना दें तवज्जो अजनबी को /7/
ये मगर कहना नही तुम चांदनी को /8/
अहमियत तुमने मगर दी दिल्लगी को /9/
रात भर ताका किये हैं क्या किसी को /10/
पर इजाजत थी न आने की किसी को /11/
दाने भी रखते नही देखा किसी को /12/
ना मुकम्मल सा मिला मिसरा खुदी को /13/