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कविता: गुरू की महिमा अपरंपार (सुशील सरित, आगरा, उत्तर प्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार सुशील सरित की एक कविता  जिसका शीर्षक है “गुरू की महिमा अपरंपार”:

गुरू की महिमा अपरंपार
लगा दे हर नैया वो पार
जहां भी लगे टूटने जोड़े
वह जीवन के तार।
गुरू की महिमा अपरंपार।
जो न दिखे नैनो को गुरु दिखा दे वह पल में
बुद्धि विवेक की अग्नि जला दे वह मन के जल में
अज्ञानों की धूल ह्रदय से देता वही बुहार
गुरू की महिमा अपरंपार।
क्रोध मोह मद लोभ के बंधन में जब मन बन्ध जाए
तोड़ के सारे बंधन गुरु ही सच्ची राह दिखाएं
मैल सभी धो डाले वो बनकर गंगा की धार
गुरू की महिमा अपरंपार
कण को यह बदले  विराट में विंदु को सिंधु बनाए
जीवन में जब जब अंधियारा हो प्रकाश वह लाए
बाहर भीतर दोनों साधे बनकर चतुर कुम्हार
गुरू की महिमा अपरंपा