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कविता: अभिलाषा (पृथ्वी राज कुम्हार, आसींद,भीलवाड़ा, राजस्थान)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार पृथ्वी राज कुम्हार की एक कविता  जिसका शीर्षक है “अभिलाषा”:
 
डांट बात  को सहता रहूं,यह जीवन की आशा।
मात-पिता की सेवा करलूँ, यह मेरी अभिलाषा।।
 
बड़े भाई को राम मानता,भाभी को मैं सीता
संग उन्हीं के रह जाऊं मैं,उनके संग ही जीता
घर - गृहस्थी का मान रखूं मैं,यह हो ख्याति मेरी
भाई-बहन का प्यार रहे,और ना हो मेरी-तेरी
 
संयुक्त कुटुम्ब बनाता रहे, जीवन जिज्ञासा
मात-पिता की करलूँ सेवा,यह मेरी अभिलाषा
 
सास-बहू की बातों को मैं,खुशियों में तब्दील करूं
रिश्तों से भी प्यार ही बरसे,सबको ऐसी प्रीत भरूं
नुगरों का मैं त्याग करूँ और, खुशियों में रम जाऊं
बच्चों रुपी फूलों से, मैं आंगन का श्रृंगार करूं
 
ना बदले वो तेवर मेरे,ना बदले जीवन का पासा
मात-पिता की सेवा करलूँ , यह मेरी अभिलाषा
 
कच्छुए सी हो चाल मेरी,और यह जीवन खरगोश
धीरे-धीरे भी सब कुछ होता, यूं ना हो मदहोश
शुद्धि का मैं जीवन जीकर, सद्बुध्दि का पान करूं
मंदबुद्धि को छोड़ के पीछे, खुशियों का आह्वान करूं
 
शिक्षा का मैं महत्व बता दूं,यह जीवन परिभाषा
मात-पिता की करलूँ सेवा ,यह मेरी अभिलाषा