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कविता: रंगमंच (संगीता मुरसेनिया, भोपाल, मध्य प्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार संगीता मुरसेनिया की एक कविता  जिसका शीर्षक है “रंगमंच”: 

सकल विश्व रंगमंच है ।
हम सब मनुष्य मात्र ।
अपना - अपना पाठ निभाते ।
इस रंगमंच पर ।1।
 
हमारा अभिनय पूर्व निर्धारित होता है ।
विधाता की रचना से ।
सब उसी निर्धारित पाठों का नित - नित,
करते अभिनय विश्व रंगमंच पर ।2।
 
सकल विश्व रंगमंच है ।
रंगमंच की सज्जा होती सुंदर ।
अभिनय से, रंगमंच का नेता,
अभिनेता, नाटककार, कहानीकार ।3।
 
अपने - अपने निर्धारित
पाठ निभाते हैं, निर्धारित
पाठानुसार, रंगमंच पर ।
काव्य पाठ माध्यम होता है ।
मन से मंच तक ।
भावाभिव्यक्ति पहुंचाता है ।
नित्य नूतन कवि कवयित्री ।4।
 
सकल विश्व रंगमंच है ।
हर मानव स्त्री हो या पुरुष ।
नित - नित, नूतन - नूतन ।
अभिनय करने,
बेबस होता सृष्टिकर्ता के
अधीन, पराधीन, विवश,
होता, विश्व रंगमंच पर ।
अभिनय करने को ।5।