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कविता: अन्नदाता (सपना, औरैया, उत्तर प्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार सपना की एक कविता  जिसका शीर्षक है “अन्नदाता”: 

रुठ गए अन्नदाता जो,
  सोचो हमारा क्या होगा?
     कैसे भरेगा पेट सभी का,
       बोलो जहाँ का क्या होगा?
 
भरी दोपहरी में जब हम,
    ए सी के घरों में सोते हैं।
      सारे अन्नदाता तब ऐसे में,
         अपने खेतों को बोते हैं।
 
तन और मन से अन्नदाता,
    बस अपना धर्म निभाते हैं।
       पेट जहाँ का भरने को ये,
         अपना खून पसीना बहाते हैं।
 
थर थर कांपे अन्नदाता सब,
     सूखा, बाढ़ जब आ जाए।
        लहलहाती फसलों पर जब,
            भीषण ओलावृष्टि हो जाए।
 
डाल दिये हथियार इन्होंने,
    तो बोलो क्या खाओगे?
       पेट की आग  बुझाने को,
           क्या तुम खेती कर पाओगे?
 
मई जून की तपती धरा पर,
    क्या चार कदम चल पाओगे?
         हाड़ कंपाने वाली सर्दी में,
             क्या खेतों में काम कर पाओगे?
 
छोड़ मखमली बिस्तर तुम,
    क्या मेंड़ों पर सो पाओगे?
       खुले गगन के तले बताओ,
            क्या तुम रात बिताओगे?
 
गरम तवे सी तपती धरा पर,
   क्या हल को चला पाओगे?
      बनकर सच्चे कृषक बताओ,
          क्या उनका धर्म निभाओगे?
 
खड़ी फसल पर बोलो ज़रा,
    मौसम का कहर सह पाओगे?
        दिल पर पत्थर रख कर क्या,
            बर्बादी का मंजर देख पाओगे?
 
तरह तरह के व्यंजन थाली में,
     बोलो तुम कहाँ से पाओगे?
          जिस दौलत पर नाज़ तुम्हे है,
             क्या दौलत ही तुम खाओगे?
 
ना ठेस लगाओ कृषकों को,
    ना इनकी हाय सह पाओगे।
        रूठ गए अन्नदाता यदि जो,
            सब भूखे ही मर जाओगे।
 
अन्नदाता का मान करो,
      हैं धरती के भगवान यही।
          पेट जहाँ का भरने वाले  ,
               हैं सच्चे ठेकेदार यही।