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कविता: कितना निर्दय हुआ इंसान (सपना, औरैया, उत्तर प्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार सपना की एक कविता  जिसका शीर्षक है “कितना निर्दय हुआ इंसान”:
 
हाय दुर्दशा कैसी हो गई तेरी धरती मां,
कितना निर्दय हुआ इंसान ....
    अपने स्वार्थ की खातिर देखो,
    मां का किया क्या हाल।
    कितना निर्दय हुआ इंसान....
 
हाय दुर्दशा कैसी हो गई तेरी धरती मां,
कितना निर्दय हुआ इंसान.....2
      काट के जंगल सारे देखो,
      हैं शहर किए आबाद ।
      कितना निर्दय हुआ इंसान....
 
हाय दुर्दशा कैसी हो गई तेरी धरती मां,
कितना निर्दय हुआ इंसान ....
     पाप ये इनको नजर ना आए,
     हैं बने कितने अनजान।
     कितना निर्दय हुआ इंसान।
 
हाय दुर्दशा कैसी हो गई तेरी धरती मां,
कितना निर्दय हुआ इंसान ....
    कितनी बेरहमी से देखो,
    मां का उजाड़ा है श्रृंगार।
    कितना निर्दय हुआ इंसान.....
 
हाय दुर्दशा कैसी हो गई तेरी धरती मां,
कितना निर्दय हुआ इंसान.....   
     वृक्षों बिन छाया ना होवे,
     धूप से झुलसे धरती मां।
     कितना निर्दय हुआ इंसान।
 
हाय दुर्दशा कैसी हो गई तेरी धरती मां,
कितना निर्दय हुआ इंसान....2
     कितनी निर्ममता से देखो,
     उजाड़ा जीवों का संसार।
     कितना निर्दय हुआ इंसान......
 
हाय दुर्दशा कैसी हो गई तेरी धरती मां,
कितना निर्दय हुआ इंसान ....
      भूख प्यास से तड़प रहे सब,
      ना बची है मन में आस।
      कितना निर्दय हुआ इंसान.....
 
हाय दुर्दशा कैसी हो गई तेरी धरती मां,
कितना निर्दय हुआ इंसान ....
       बिन पेड़ों के बचे ना जीवन,
       और बचे ना वायु प्राण।
       कितना निर्दय हुआ इंसान.....
 
हाय दुर्दशा कैसी हो गई तेरी धरती मां,
कितना निर्दय हुआ इंसान ....
      वृक्ष बिना बरसात हो कैसे,
      हो कैसे धरती मां निहाल।
      कितना निर्दय हुआ इंसान।
 
हाय दुर्दशा कैसी हो गई तेरी धरती मां,
कितना निर्दय हुआ इंसान ....
       मां रूठ गई तो सोचो जरा ये,
       क्या होगा तेरा हाल ।
       कितना निर्दय हुआ इंसान.....