पश्चिम बंगाल
के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से
प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके
सामने प्रस्तुत है रचनाकार डॉ● त्रिलोकी सिंह की एक कविता जिसका
शीर्षक है “ज्ञानचक्षु तू खोल”:
तेरा - मेरा छोड़ बावरे,
जीवन है अनमोल रे !
मन का सब अज्ञान
मिटाकर,
ज्ञानचक्षु तू
खोल रे !
द्वेष - भाव को त्याग, सभी से -
रख ले अपनेपन का
भाव।
तन – मन - धन का दम्भ
त्यागकर,
कर ले अपना मृदुल
स्वभाव।।
देख नहीं पर - दोष कभी भी,
अपना हृदय टटोल
रे !
मन का सब अज्ञान
मिटाकर,
ज्ञानचक्षु तू
खोल रे !
'मैं' का ज्ञान नहीं है तुझको,
'तू' को क्या समझेगा तू ?
'तू - तू' - 'मैं - मैं' के चक्कर में,
जीवन भर भटकेगा
तू।।
जन - जन से तू मीठी
वाणी,
तोल - तोल कर बोल रे !
मन का सब अज्ञान
मिटाकर,
ज्ञानचक्षु तू
खोल रे !
तेरा - मेरा करते - करते,
हाथ नहीं कुछ
आएगा।
इक दिन तेरा यह
जीवन - घट,
मिट्टी में मिल
जाएगा।।
फिर भी तू क्यों
नहीं समझता,
साँस - साँस का मोल रे।
मन का सब अज्ञान
मिटाकर,
ज्ञानचक्षु तू
खोल रे !
स्वार्थ - भाव से ऊपर उठकर,
क्यों करता उपकार
नहीं ?
परहित में रत हुआ
नहीं तो,
हो सकता उद्धार
नहीं।।
जन - जन के प्रति अपने
उर में,
प्रेम - सुधा - रस घोल रे !
मन का सब अज्ञान
मिटाकर,
ज्ञानचक्षु तू
खोल रे !
ऐसा जीवन बना
लिया तो,
बेहतर तेरा कल
होगा।
सत्कर्मों के
कारण तेरा,
तरना बड़ा सरल
होगा।।
फिर तो सत्पथ पर
बढ़ता चल,
कर मत टालमटोल रे !
मन का सब अज्ञान
मिटाकर,
ज्ञानचक्षु तू
खोल रे !