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कविता: रोटी (वीरेंद्र प्रधान, शिव नगर, सागर, मध्यप्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार वीरेंद्र प्रधान की एक कविता  जिसका शीर्षक है “रोटी”:

 
किसी भी माटी में पैदा हुए
किसी भी अनाज से बनूं मैं
किन्ही भी हाथों से उतर
सेंकी जाऊँ तबे पर पसर
अथवा पकुँ तंदूर के अंदर
ताप या आंच में पककर
भी एक ही स्वभाव है मेरा खुशी में फूलना
और फूलकर एक सी खुशबू बिखेरना।
अन्य किसी भी पकवान की तरह लोगों को ललचाकर
सिर्फ जीभ का जायका बनाना
नहीं है उद्देश्य मेरा।
मैं तो बिना किसी भेदभाव के
हर जाति और मजहब के
लोगों की भूख मिटाना
ही मेरा काम सदा से
मेरा दीनो - ईमान है
बस लोगों भूख मिटाना।
एक सी आकृति, स्वाद और गन्ध ले
मेरी जाति और मजहब है
बस भूखे की भूख मिटाना
बिल्कुल वैसे ही जैसे मेरी सखी नदी का काम
प्यासे की प्यास बुझाना ।
जायकेदार डाल या सब्जी के बिना भी
नमक की डली या प्याज के टुकड़े के साथ मिलकर भी
बस वही करती हूँ मैं जो मुझे करना चाहिये।