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लघुलेख: दुबला होना भी गौरव की बात हैं..? (डॉ• वीरेन्द्र सिंह गहरवार "वीर", बालाघाट, मध्यप्रदेश)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “डॉवीरेन्द्र सिंह गहरवार "वीर" का एक लघुलेख जिसका शीर्षक है “दुबला होना भी गौरव की बात हैं..?”:

 
        कुछ भी कहो, मानो या न मानो,
        लेकिन दुबला होना भी गौरव की बात हैं? मैं एक जन्म जात दुबला हूँ, जब पैदा हुआ तो बहुत ही दुबला-पतला था, घर वाले बताते हैं, परिवार जनों ने सोचा, बड़ा होते जायेगा, मोटा होते जायेगा, ऐसा हुआ नहीं, उतना ध्यान नहीं दिये।

      जब स्कूल में प्रवेश का समय आया, बच्चा समझ प्रवेश नहीं मिला, घर पर सब परेशान 10 साल का हो गया, प्रवेश नहीं मिल रहा था, कान पकड़ाते देखा, फिर भी हाथ नहीं  पहुँचता था,  कान तक (उस समय कान पकड़ाते थे) जैसे-तैसे मेरे पिताश्री  ने 15 साल लिखा कर पहली  कक्षा में प्रवेश दिलाया, मैं पढ़ने में तेज था, इस कारण किसी को परेशानियां नहीं हुई,  हर साल दो कक्षा पास करता था, उस जमाने में? जैसे-तैसे स्कूल से काँलेज पहुँचे, सबकी निगाहें हमारे ऊपर ही, कैसे इन लोगों से बचा जाए, खैर? हमनें इस ओर ध्यान नहीं दिया, लेकिन ये भी नजारा देखने को बनता था, लड़के सिर पर बिठालते, लड़कियां गले लगाती, बच्चा समझ, कुछ भी कहो बड़ा आनंद आता था , उनके व्यवहारों से, जाने भी दो यारों, वे दिन अब कहाँ आयेंगे, एक बार काँलेज की दीवाली में फटाका फोड़ने की बारी आई, बच्चा समझ कर हाथ नहीं लगाने दिया गया, क्या करते छोटी सी टिकली से काम चलाये।

        काँलेज से निकले नौकरी की तलाश में,  नौकरी तो, नहीं मिली, मेरी बहुत इच्छा थी, सेना में भर्ती हो जाऊँ, एक बार की बात, मुझे अच्छी तरह से याद हैं, कि सेना की नौकरी निकली, मैंने फार्म भी भर दिया, पास भी हो गया, किंतु मजे की बात, भाई साक्षात्कार में फैल हो गया, यह भी सौभाग्य की बात थी।

       नौकरी खोजते-खोजते, नौकरी तो नहीं मिली, किंतु आखिर में एक छोकरी जरुर मिल गई, वह मेरे से दुगुनी याने की मोटी, मुझे बिल्कुल पसंद नहीं थी, परन्तु रिश्तेदारों के कहने पर कर ही डाला शादी?  दुबले पन पर गौरव भी था चलो जो हुआ, अच्छा हुआ? (श्रीकृष्ण का श्लोक याद आ गया), चलो आज दूल्हा तो बन गये, बारात निकालने के लिए घोड़ी बुलवाया गया, वह भी मुझसे काफी ऊँची थी, मैं घोड़ी को देखता, घोड़ी मुझे?  मैं जब घोड़ी पर चढ़ा, घोड़ी बहुत खुश, फूलें नहीं समा रही थी,  जब भाई मेरी बारात निकली घोड़ी पर, विशाल घोड़ी पर, सवार कोई शहंशाह जा रहा हो, अचानक मुझे याद आया, कहीं मैं नीचे न गिर जाऊँ जान का भी डर था, पहली बार तो शादी हो रही थी,  हाँ तो भाई मेरी बारात में आनंद ही आनंद था, हमारे मित्र भी कई थे, क्योंकि हम कवि थे, जैसे शिवजी की बारात जा रही थी, वैसे ही हमारी थी?  शादी की बारात, साले के बहन के घर पहुंची, जैसे-तैसे वर माला पहनाने का समय आया, कई लोग मेरे दुबले पन को तरस रहे थे, आंक रहे थे, कह रहे थे, दुबला क्या करेगा, मेरे दुबले पन पर चर्चा गर्म थी, एक ने पीछे से चिल्लाया, "वीर" जी चिंता न करें, हम तुम्हारे साथ हैं.....?

      जब बारात हमारे घर आई, पहली रात को पत्नी ने जब आलिंगन लिया, मानो शरीर की हड्डी ही टूट गई हो, मेरे मुँह से अचानक आवाज निकली "आंय", घर वाले दौड़ पड़े, हमारे नये पलंग का बेहाल था, बिस्तर के चिथड़े-चिथड़े उखड़े थे, खैर जाने दो बड़ी शर्म लग रही है, लिखने-बताने को, इसी तरह दिन-रात गुजरते गये, हमारे पड़ोस में ही मोटा आदमी व दुबली पत्नी का परिवार था, उनके बारे में सोचता, ये कैसे करते होंगे, मुझ से रहा नहीं गया, पूछ ही लिया, उन्होंने कहा भाई "वीर" जी गोदी में खिलाते हैं, बच्ची जैसा, मैंने कहा वो तो ठीक हैं,  किंतु भाभी जी को परेशानियां होती होगी, भई कोई परेशानी नहीं, उसे काफी मजा आता हैं।

          दुबले पन की जिंदगी, कट रही थी, कई डाक्टरों से दवाई करवाई, काफी डंड बैठक भी किया, किंतु उसके कारण पैर भारी हो गये, कई सालों तक सरकारी अस्पताल में भर्ती रहें, मोटे हो जायेंगे, कितना मेवा खाएं, किंतु कुछ नहीं हुआ, जो तकदीर में लिखा था, वही हुआ।

       एक दिन हमारा, अचानक पहली बार निधन हो गया, रोने वाले बहुत थे, कई हँसने वाले भी थे, क्योंकि हम जो  कवि थे, वे सोचते चलो, एक तो कम हुआ, परेशान करता था,  कार्यक्रम आयोजन करवातें, कोई भी समितियां  "वीर" की स्मृति में सम्मान भी आयोजित नहीं करेगा। जब हमारी शव यात्रा की तैयारी प्रारंभ हुई, पूर्ण रुप से जब सब चीजें कम लगी, शवयात्रा प्रारंभ हुई, वह भी पैदल,  उस समय नगर पालिका का "रथ" नहीं था,  मेरे पिताश्री के निवास  से, मुझे पहली बार ले जाने वाले भी काफी खुश थे,  मुझे बड़ा मज़ा आ रहा था, क्योंकि मासूम सा हल्का-फूल्का था, कोई तो कांधे पर लेकर जा रहा था, उन्हें लग ही नहीं रहा था  एक ने पीछे से चिल्लाया, रोको-रोको (रास्ते में) आ..... बो..... बो पुरातत्व संग्रहालय आ गया? "वीर" को यही गाढ़ दो, कौन पांच किलोमीटर पैदल लेकर जाऐं, सबके पांव भारी हो गये हैं .....?