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कविता: अनुरोध कवि से (वीणा गुप्त, नारायण विहार, नई दिल्ली)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “वीणा गुप्त की एक कविता  जिसका शीर्षक है “अनुरोध कवि से”:

बदरंग हो गया यह, फलक दुनिया का,
रंग नए भर, इसे चित्र सा कर दे।
 
मन में तेरे करूणा-पारावार लहरा रहा,
त्रसित जग तुझसे, नई आस पा रहा ।
अहसास सोए जगाकर, नया विश्वास भर दे।
 
भेदभाव के विषधर, मानवता को डस रहे।
धर्म के नाम पर, आडंबर पल रहे,
मनुज के वेष में, दनुज यहाँ बस रहे।
कंसों का वध करने, गिरधर  का रूप धर ले।
 
ले नाम प्रगति का रसातल में धंसती सभ्यता।
व्यवहार निरंकुश हुए, आचार में न शिष्टता।
बारूद के पर्वत पर, बैठी है मनुजता।
प्रतिपल प्रलय की आहट,
तू सृजन नाद कर दे।
 
ह्रदय धरती माँ का सौ टूक हो रहा,
पूत बने कपूत अब, सब मान खो रहा।
अश्रुधार बन, नदी का नीर बह रहा,
आश्वास गीत गा, तू उसकी पीर हर ले।
 
तू मानवता का उपासक, नए क्षितिज दिखा।
तू शब्द का कारीगर, अध्याय रच नया।
तू ज्योति का समर्थक, तमस दे मिटा।
जड़ताएंँ  फूंकने को, ऊँची मशाल कर ले।
 
तव कल्पना से फलक यह
नवरंग पाएगा।
तेरी शब्द-गीता श्रवण कर,
पार्थ चेत जाएगा।
शांति कपोत दम से तेरे, नव उड़ान पाएगा।
मुग्ध चकित रह जाएंँ सब,
ऐसा परिवेश कर दे।
 
बदरंग हो रहा यह, फलक दुनिया का,
रंग नए भर, इसे चित्र सा कर दे।