पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “भारती सिंह” की कुछ रचनाएं:
पश्चाताप
अरसे की बीमारी
से
हाल ही था निजात
पाया
बेस्वाद खाने को
खाकर
मन बहुत घबराया
दो महीने जिव्हा
बेचारी
बेकसूर तड़पती रही
पेट तो भर ही
जाता
यह नादान सिसकती
रही
डॉक्टर का नाम
लेकर
अब हम घर से बाहर
आए
दो गली छोड़ तीसरी
में
मुच्छड़ गोलगप्पे
वाले बुलाए
जब तक कहते हाथ
धो लो
पांचों उंगलिया
मटके में हिलाता
इमली धनिया
पुदीना मसाले
बूंदी सब हाथ से
मिलाता
करारी पूरी आलू
भरकर
तीखी मीठी पानी
लगाई
मुंह मे घुलती
अनुपम स्वाद
तीखे से आंख भर
आईं
भैया एक सूखा भी
जरा स्पेशल पपड़ी
चाट बनाना
हो सके तो मिर्ची
दही
इमली खजूर की
चटनी और लगाना
तवे पर समोसे पड़े
थे
पतीले से छोले
उबल रहे थे
सदियों की भूख
उमड़ आई
दो महीने घर मे
रहे थे।
अब बना दो समोसे
चाट भी
आज दिल भर आया है
एक मुश्त के बाद
कोई
कैदी आज बाहर आया
है
पानी की जगह न थी
खा लेते दही बड़े
भी
इतना ही काफी है
चलो भैया और कभी
आंख नाक पोछते,खाकर हुए पस्त
आज छकाया सबको
जबरदस्त
घर पर इंतजार
करती मिली खिचड़ी मूंग वाली
करारी मिर्ची से
उतर आई थी आँख में जरा लाली
किसको बताएं इतना
सुख आज मैंने पाया
मन मारकर दो
चम्मच खिचड़ी भी खाया
रात को मची चीख
पुकार
पेट कर रहा था
हाहाकार
अजवाइन ,हींग सौंफ पुदीना
सब हो गए बेकार
उलट पुलट कर
चीखते
सारी रात न सोया
हाय बेचारा गुलाम
जीभ का
अब बहुत पछताया
वो नीरस लड़कियां
जाने कहाँ खो
जाती है
वो नीरस लड़कियां
किताबो में डूबी
रातें
अलग ख्वाब थे
जिनके
लटके झटके नहीं
सीख पाई
न गृहस्थी के
दांव पेंच
बालों में सीरम
लगाना
कहाँ उन्हें याद
था
चुस्त कपड़े ,लटकन वाले झुमके
नई फिल्में, नए गाने
सब इनकी राह तकते
शादी की उम्र के
उत्तरार्ध में
हथियार डालकर
सजा रही अपना
आशियाना
अपने सपनो को परे
हटाकर
इनसे पूछो जरा
क्या याद है
इन्हें
स्कूलों में मिले
तमाम
प्रथम-द्वितीय के
तमगे
दौड़ में आगे, खेल में आगे
वाद विवाद निबंध
में भी आगे
दहेज प्रथा पर
निबंध में
प्रथम तुम ही आई
थी न
जब पापा ने गिने
थे पैसे
क्या बोल पाई कुछ
कन्या भ्रूण
हत्या पर
चिल्ला चिल्ला कर
भाषण देती
बेटी के जन्म पर
परिवार वालो के
उतरे मुंह
तुमने अनदेखा
किया क्या
वह कॉलेज की तेज
तर्रार लड़की
तुम ही थी न
तेजाब पीड़िताओं
पर
अखबारों में
लिखने वाली
तेजाब से तेज
बोली को
नीलकंठ की तरह
अवरुद्ध गले में
जज्ब कर
कहाँ खो जाती हो
आओ खुद के सामने
बैठो न कभी
बातें करो अपनी
न न पलकें मत
पोछो
जरा मुस्कुरा भी
दो अब
अपने लिए एक बार
बेटी
चहकती है, चहचहाती है
फुदकती है और
गाती भी है
पर घर नही होता
अपना
बेटियां जिसे
अपना कह सबको बताती है
तिनका तिनका सपने
जोड़
ऊंची उड़ान की आस
लिए
हौसलों के पंख
पसारती है
हर बेटी फिर भी
कहाँ
अपनी मनचाही उड़ान
भर पाती है
नभ के अंतिम छोर
को
छूने के उल्लास
में अक्सर
फुनगी और झाड़ियों
में भी
घोसले बसा गुजार
लेती है
फिर भी नही वह
उसका हो पाता
बेटियां किसे
अपना घर बताती है
ईद, होली या बैसाखी
हर पर्व के रंग
की रंगोली
जिनकी एक मुस्कान
से सजती
एक पल में होकर
पराई
घर आने को भी समय
निकालती है
घर से वह मायका
बन जाता
दो दिन की मेहमान
बनकर
अपने ही घर मे जब
आती
न जाने कितने खेल
खिलौने
मुँह चिढ़ाते पास
बुलाते
वापस जाते आंसू
कहां रोक पाती है।
अपने प्यारे से
घर के
बंटवारे पर दहलती
बेटियां
किस ओर अपना हक
जताए
यह तो उसका था ही
नही
फोन तक रिश्ते
निभाती
मन की शिकायतें
मन मे रखकर
मायके की दहलीज
पर अपने बचपन रख
सयानी बेटी कब
सयानी हो पाती है
अब यह घर नही
अपना
बेटियां जिसे
अपना बताती है।
पारिजात का
सिसकना
शरद के बढ़ते चाँद
के साथ
बढ़ती शीतलता सर्द
हवाएं
अँजोरिया में
टकटकी लगाए
बस पुकार रहा था
तुम्हे
जाने क्यों लगा
तुम यही आस पास
हो
सच हो
या फिर मेरा
कोरा अहसास हो
चादर की कोर में
आंसुओ को पोछती
तुम
यही खड़ी थी न,
देखी मैंने परछाई
को
छुपते हुए
चांद की चुगली पर
तुम शायद नाराज
थी
रहा नही गया उससे
भी
तुम्हारी विरह की
अंतर्व्यथा
कोई तो नही सुनता
फिर, क्यो ये पारिजात
हर रात सिसकता है
इन फूलों को
चुनती तुम
क्यो नही रो पाती
हो
क्या अब भी याद
है तुम्हे
कसमे देहरी न
लांघ पाने की
तुम्हारे आलता
लगे पैर
अभी यही देखा
मैंने