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कहानी: चयन (गीता परिहार, अयोध्या, उत्तर प्रदेश)

 पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार गीता परिहार की एक कहानी  जिसका शीर्षक है चयन":

मैं ठीक 10 बजे अपने क्लीनिक पहुंच जाता हूं। 10 बजे से 2 बजे मरीजों से मिलने का समय है,मगर 2 बजे उठना कभी नहीं हो पाता,कभी - कभी तो 4 बज जाते हैं। इसलिए शाम को अटेंडेंट जब बताता है कि रिसेप्शन एरिया में काफी मरीज हो गए हैं,तब आता हूं। वैसे शाम को मेरे बैठने का समय 6 बजे से 8 बजे तक है।

  इन कुछ वर्षों में मानसिक तनाव से ग्रसित मरीज बहुत बढ़ गए हैं, अच्छा तो यह है कि वे साथ ही तनाव से निजात पाने के लिए मनोचिकित्सक के पास पहुंचने भी लगे हैं।

  वैसे शाम के वक्त मरीजों की भीड़ कुछ कम होती है।मैने रिसेप्शन एरिया के सी सी टी वी कैमरे पर नज़र डाली।

 एक महिला व्यग्रता से चहलकदमी करती नज़र आईं। कुछ मरीज़ हॉल में लगे टी वी को देख रहे थे,कुछ साथ आए रिश्तेदार,मित्रों से दुख बांट रहे थे,वह सबसे अलग ही नज़र आ रही थी।उसके साथ एक लड़का था,जो उसकी परेशानी से बिल्कुल भी वाबस्ता नहीं लग रहा था। मैं उसकी बैचेनी देखकर अटेंडेंट की सूचना देने से पहले ही अपने चैम्बर में आ गया और घंटी दबा दी।

उसका नंबर छठवें मरीज के बाद था।

  अपना नम्बर आने पर  हड़बड़ी में वह चैम्बर में दाखिल हुई, साथ में लगभग 15 - 16 साल का लड़का था।

आते ही उसने कहा, " डॉक्टर, बस एक मेडिकल सर्टिफिकेट चाहिए था।"  वह बहुत उद्विग्न थी।। बोलीमेरे बेटे के स्कूल वाले न जाने क्यों उसे ," प्रॉबलम चाइल्ड " मनवाने पर तुले हैं, ....

  जबकि वह  एक सामान्य बच्चा है, उनका सख्त निर्देश है कि उसे स्कूल में तब तक पुनः प्रवेश नहीं दिया  जायेगा,जब तक एक बाल मनोचिकित्सक उसे सामान्य होने का प्रमाण नहीं दे देता। "

 मैने उनसे कहा, " कृपया शांत हो जाएं,  परेशान न हों,प्रमाणपत्र देने से पूर्व मुझे इनकी जांच के लिए, इनके साथ कुछ सेशन लेने होंगे। "

मैने लड़के की ओर देखते हुए कहा , " इसमें तुम्हें मेरी खुलकर मदद करनी होगी।तभी हम समस्या की जड़ तक पहुंचेंगे और उसे दूर भी अवश्य ही कर सकेंगे।"

 इस पर वे दोनों असहज दिखे।मैं जानना चाहता था कि असली  परेशानी  क्या है।

उसने मुझसे नज़रें चुराते हुआ दोहराया , " डॉक्टर, यह बिल्कुल स्वस्थ बच्चा है,बस स्कूल काउंसलर अड़ा है कि इसे किसी  विशेष सलाह कि जरूरत है जो स्कूल में सम्भव नहीं है। इसे स्कूल में पुनः प्रवेश तभी मिलेगा  ,जब यह किसी विशेषज्ञ का मनोचिकित्सकीय अवमूल्यन और ' सामान्य मानसिक  सेहत ' का सर्टिफिकट  दिखाएगा। "उसके हाव-भाव स्कूल प्रबंधन के प्रति उसकी नाराज़गी बंया कर रहे थे।

मुझे वह किशोर वय का बालक बहुत हद तक गुमसुम,परेशान,असामान्य और खोया - खोया सा लग रहा था। 

मुझे आभास हुआ कि कुछ तो है इस लड़के में जो बिल्कुल असामान्य है।वह मेरे हर सवाल से खुद को बचाने की कोशिश कर रहा था।

उससे पूछताछ में भी सावधानी बरतने की जरूरत थी।ज्यादा खोलने की कोशिश में वह और सिमट न जाए।

मगर मां का क्या! वह तो एक ही रट लगाए थी,"डा.,मेरा बेटा बिल्कुल ठीक है,स्कूल वाले न जाने क्यों नहीं मानते! आप तो बस सर्टिफिकट बना दीजिए,ताकि इसकी पढ़ाई खराब न हो, और यह स्कूल जा सके।"

मैने अपनी बात समझाने की कोशिश करते हुए कहा, " यह केस इतना भी साधारण नहीं है।मुझे आपके बेटे के साथ कुछ  सेशन लेने होंगे,तभी मैं किसी ठोस नतीजे पर पहुचुंगा।शायद इसे भर्ती भी करना पड़ सकता है।"

 

 यह सुनते ही  वह उसका हाथ पकड़ कर जाने को तत्पर हो गई।फिर न जाने क्या सोच कर वापिस बैठ गई। मैं असमंजस में था,उन्हें शायद जानकारी भी न हो कि जिसे वह सामान्य  बालक मां रही हैं वह किसी वजह से तनावग्रस्त हो और अपनी बात खुल कर किसी से कह न पा रहा हो। पिछले एक दशक में अनेक तनाव जनित कारणों से अवसाद/डिप्रेशन के मामलों में 18% की बढ़ोतरी हुई है, सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि 25% भारतीय किशोर  डिप्रेशन का शिकार हैं।

साफ नज़र आ रहा था कि उसका केस साधारण नहीं था।जितना शांत वह बाहर से दिखता था,उतना ही उसका दिमाग अशांत था।उसे सतत मदद की ज़रूरत थी।

वह बैठ तो गई मगर बोलीं, "डॉक्टर, दो महीने बाद ही

इसके इम्तहान हैं, और मैं किसी सूरत में इसका एक साल बिगड़ने नहीं दूंगी।आपके कुछ सेशन तो बहुत वक्त ले लेंगे।"वह मेरी तमाम हिदायतों को नकारते हुए उसे ले गई।

अफसोस कि पढ़े - लिखे लोग भी  जीवन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव को लेकर बहुत संजीदा नहीं हैं।जबकि स्वस्थ शरीर और  स्वस्थ मस्तिष्क, दोनों स्वस्थता का परिचायक हैं।

दूसरी सुबह चाय के प्याले के साथ जब मैने फोल्ड किया अख़बार उठाया,तो एकबारगी पलक झपकाना भूल गया। मुखपृष्ठ पर खबर थी," स्कूल प्रिंसिपल की हत्या, हत्यारा 15 वर्षीय छात्र!....यह वही लड़का था!

   मालूम चला कि जब  प्रिंसिपल ने उसे  स्कूल में प्रवेश  देने से इंकार किया तो उस लड़के ने आपा को दिया और साथ लाए चाकू से प्राचार्या पर कई वार कर दिए जिससे  अत्यधिक खून बह जाने से अस्पताल ले जाते हुए उनकी मृत्यु हो गई।

 आज वह लड़का जेल में है। जहां दो बार उसने आत्महत्या की कोशिश की।

काश ! उसकी मां ने उसकी बीमारी की गंभीरता को समझा होता।इम्तहान और स्वास्थ्य में से सही चुनाव किया होता।इम्तहान छूट जाने से एक साल व्यर्थ होता, मगर अब तो उसका पूरा जीवन बर्बाद हो चुका था।