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कहानी: संस्कार (प्रफुल्ला मिंज, सिलीगुड़ी, पश्चिम बंगाल)


पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार प्रफुल्ला मिंज की एक कहानी  जिसका शीर्षक है “संस्कार":

     रविवार का दिन था | आज के दिन गाँव में पूरे सप्ताह की तुलना, चहल - पहल थोड़ी अधिक रहती है | सोमवार से शनिवार तक अपने कामों में ही व्यस्त रहने वाले लोग, अपने  बच्चों के कपड़े धोने एवं घरों की साफ - सफाई करने में ही आधा दिन निकाल देते हैं | मैं भी सप्ताहांत में अकसर घर आती हूँ | हमारा गाँव राजमार्ग से दो - तीन कि. मी. अंदर और शहर से बहुत दूर है |

     इस दिन हमारे गाँव में अपनी - अपनी साइकिलों पर समानों की गट्ठरी बांधे कभी मोची घूमता, पुराने छाते बनाने छातेवाला, फिर थोड़ी देर बाद बर्तनवाला और कभी कपड़े बेचने वाले लोगों का क्रम चलता रहता है | मैं भी अपने घर के रोज - मर्रा के कामों, स्नान, दोपहर का भोजन कर, अपने कमरे में पलंग पर बैठे फ़ोन देख रही थी |

     तभी अचानक मुझे हमारे आंगन के दरवाजे पर किसी की आवाज सुनाई पड़ी, बेटा...! मैं अपने कमरे से कौन है कहती हुई, बाहर आई | देखते ही मैंने कहा ओ आप हैं, चाचा ! उन्होंने अपने पुराने साइकिल को आंगन के एक कोने में रखते हुए कहा चाचा नहीं, मामा ! "हम तुम्हारी माँ को दीदी बोलता था", उन्होंने कहा | ओ माफ़ कीजिएगा, मामा ! मैंने कहा | अंदर बैठने के लिए आग्रह करने पर, वे थोड़ा संकोची स्वभाव में भीतर आकर सोफे पर बैठे | मेरे परिवार के बाकी सदस्यों के बारे में उन्होंने पूछा | "भाईया और भाभी कुछ काम से कहीं बाहर गए हैं और उनके दोनों बच्चे पीछे के मैदान में खेल रहे हैं, " इस तरह मैंने उनका उत्तर दिया | फिर मैंने उन्हें पानी के लिए पूछा और उनके साथ बातों का सिलसिला आगे बढ़ा |

     ये वही व्यक्ति हैं, जो प्रत्येक वर्ष बरसात के मौसम में पुराने - फटे छाते की मरम्मत करने के लिए गाँव - गाँव जाया करते हैं | जिनका नाम है करीम | बचपन में कई सालों तक उन्हें गाँव में देखती रही | लेकिन बीच में इनका आना - जाना नहीं था और आज इतने वर्षों बाद वे जो अकसर मेरे पिताजी, बड़ी बहनों और बड़े भाईयों से मिलते थे, फिर एक बार हमारे घर आना हुआ | बचपन में मैंने कभी उनसे बातें नहीं की थी और जिन्होंने बातें की, अब वे इनसे बातें करने के लिए नहीं रहे |

     पानी पीने के कुछ पांच - दस मिनट बाद, मैंने चाय के लिए पूछा | "नहीं पीएगा बेटा, क्यों इतना तकलीफ उठाएगा", उन्होंने कहा | "दो कप चाय बनाने में कोई देरी नहीं होती, मामा ! " मैंने कहा | ठीक है बनाओ, कह कर वे थोड़े मुस्कराए | चाय पीते - पीते मैं फिर उनसे पूछ बैठी, "आप घर से कितने बजे निकले थे, सुबह नाश्ते में और दोपहर का भोजन किया या नहीं ? "  " सुबह के नाश्ते में चाय - मुड़ी, 11 बजे भात - सब्जी खाने के बाद हम करीब 11.30 बजे घर से निकला है," उन्होंने बताया | इतना सुनते ही मेरी नजर दीवार पर टंगी घड़ी पर गर्ई, जिसमें 5.30 हो रहे थे |

     उनकी उम्र अभी लगभग 65 - 70 होगी | वेशभूषा में कोई परिवर्तन नहीं था | बचपन में मैंने जिस प्रकार नीली लुंगी और मटमैले कुरते के साथ एक गमच्छे में देखा था, आज भी बिल्कुल वैसे ही लिबास में थे | चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गईं थीं, लेकिन आंखों में एक चमक थी, जो मानो कह रही थी कि जब तक यह शरीर साथ देगा, अपने मेहनत से ही अपना आत्मसम्मान बचाऊंगा | कुछ देर तक इधर - उधर की बातें हुई, फिर वे "चलना होगा, बेटा ! " कह कर खड़े हो गए | मैंने भी ठीक है आते रहिएगा, कह कर उनके हाथों में कुछ रुपये चाय - नाश्ते के लिए देने चाहे | "नहीं - नहीं इसकी कोई जरूरत नहीं, " उन्होंने कहा | "बेटा भी कहते हैं और बेटे के भेंट को मना भी कर रहे हैं, "ऐसा कहते हुए रुपये मैंने उनकी ओर बढ़ाए | बड़े आदर के साथ अपने हाथों को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने धन्यवाद ! कहकर रुपये अपने कुरते के जेब में रखा | फिर वे, "आता है" कह कर अपने साइकिल की ओर बढ़े और उस पर बैठकर अपने घर को चल दिए |

     मेरे पड़ोस की चाची ने उनसे वार्तालाप करते देख यह कहा, " वो तो दूसरे जाति - धर्म का है न ?" मैंने हामी भरते हुए कहा, "है तो इंसान ही न चाची !" फिर मैंने चाची से कहा, "यदि आपके संस्कार सिर्फ़ आपके बिरादरी के लोगों का सम्मान करना सिखाती है, तो इससे बड़ा अनिष्ट कुछ भी नहीं |" इतना कहकर मैं फिर अपने कमरे में चली गई |