पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार रंजना बरियार की एक कहानी जिसका शीर्षक है “अतीत के पन्नों से ":
मम्मा मम्मा कहता हुआ राजेश दौड़ता हुआ कमरे में प्रवेश करता है और मेरे दोनों कंधे पकड़ कर घुमाता हुआ मुझे लगभग उठा लेता है..”बेटा बताओ तो क्या हुआ?”... “मम्मा मेरा चयन AFMC में नामांकन के लिए हुआ है.. तुम चाहती थी न, मैं डॉक्टर बनूँ, अब तुम्हारा बेटा पाँच साल बाद MBBS डॉक्टर के रूप में तुम्हारे चरणों को चूम रहा होगा!”... कहता हुआ वो झट से झुक कर मेरे चरणों को स्पर्श करता है! मैं उठा कर उसके ललाट को लगातार चूमती जाती हूँ जैसे वो मेरा दो वर्ष का बेटा हो! फ्रिज से लाकर उसे रस्गुल्ले खिलाती हूँ... थोड़ी देर बाद अपने कमरे में आराम करने चला जाता है।
मैं भी अपने कमरे में आकर बिस्तर पर लेटे लेटे अतीत के पन्नों को खंगालने लगती हूँ...एक बार अतीत की हसीन भूल भुलैये में गुम हो जाने को दिल चाह रहा है! मैं समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर कर रही थी। तभी पापा की कार दुर्घटना हो गयी थी,उन्हें चार महीने तक पी एम सी एच में भर्ती होकर इलाज करवाना पड़ा था।मैं कॉलेज से लौटते वक़्त पापा से मिलने चलीजाती थी। वहाँ एक लम्बा छरहरा स्मार्ट लड़का उस वक़्त पापा के पास होता.. मैं जब तक वहाँ रहती वो किसी न किसी बहाने वहाँ पे बना रहता..और मुझसे बात करने की कोशिश करता..मैं शर्माती हुई जवाब देती..ऐसे ही चार महीनों तक सिलसिला चलता रहा..एक दिन मेरे कमरे से निकलते ही वो भी तेज कदमों से बाहर निकला और मेरे साथ साथ कदम मिलाकर चलने लगा.. मैं चुप चाप चलती रही..अचानक उसने नाटकीय अंदाज में कहा..”I m Animesh, मुझसे दोस्ती करोगी?”... मैंने उसकी गहरी आँखों में देखा.. साफ़ साफ़ उफनती हुई समुद्र की लहरें नज़र आई! मैं डर गयी..हमारे समय में लड़कों से ऐसी बातें करने की अनुमति नहीं होती थी। मैंने ज़ुबान नहीं खोली.. पर उसे मेरा जवाब मिल गया था।पापा ठीक होकर घर आ चुके थे! मेरे कॉलेज आने जाने का सिलसिला जारी था! मैं रिक्शे से पटना मार्केट तक आती, वहाँ अनिमेष इन्तज़ार करता हुआ मिलता..दो घंटे उसके साथ रहती.. कभी कॉफी हाउस कभी पटना मार्केट की गलियों में घूमते.. डर बना रहता, कहीं कोई देख न ले! समय पंख लगाए उड़ता गया.. मैं स्नातकोत्तर की परीक्षा पास कर गयी.. कॉलेज जाने का सिलसिला रूक गया, फ़ोन का जमाना नहीं था, बेवजह घर से निकलने की अनुमति नहीं थी।मैंने अनिमेष को अपने घर का पता भी नहीं बताया था। तब परिवार, समाज से बहुत डर होते थे! पढ़ाई कर लो यही काफ़ी होता था!
छ: माह बाद ही मेरी शादी एक बिज़नेसमैन से तय कर दी गई.. मैंने हिम्मत कर मना कर दिया..बहुत डाँट मिली, अपने को कमरे में बंद कर लिया..रोती रही पर लाख पूछने पर भी शादी मना करने का कारण नहीं बताया!
एक दो महीने में सब सामान्य हो गया। बॉम्बे के एक कॉलेज से व्याख्याता की नौकरी हेतु मेरी नियुक्ति पत्र भी आ गयी। मैं योगदान देकर वहीं किराये का घर लेकर रहने लगी। शादी की चर्चा रूक सी गयी। एक वर्ष बाद मम्मी पापा दोनों एक सड़क दुर्घटना में चल बसे! अब शादी की बात करने वाला कोई नहीं था। मैं निश्चिंत हो गयी। मैंने पता लगवा कर अनाथालय जा कर सारी औपचारिकताएँ कर एक बच्चे को adopt कर लिया।मैंने ठान लिया...अनिमेष तो मुझे नहीं मिला पर इस बच्चे को डॉक्टर बनाने में अपनी जान लगा दूँगी.. मेरी आँखों से निरंतर अश्रु धारा बहती रही...राजेश मम्मा मम्मा करता हुआ मेरे कमरे में आ गया..मैंने आँसू पोंछने की कोशिश की.. राजेश हत्प्रभ.. “मम्मा तुम क्या कर रही हो? क्यों रो रही हो? क्या हुआ?” कुछ नहीं बेटे.. ये ख़ुशी के आँसू है!
. क्रमश:…………………