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ग़ज़ल: आँखें (रंजना बरियार, मोराबादी, राँची, झारखंड)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार रंजना बरियार  की एक ग़ज़ल  जिसका शीर्षक है “आँखें":

अल्फ़ाज़    में  झाँकती है   तुम्हारी  आँखें,

वाक़िफ़  हूँ मैं क्या ढूँढती हैं तुम्हारी आँखें!

 

तुम्हारे  छुपाने  से बात   कुछ  बनती  नहीं 

कह  देती है  सारी  फ़साद तुम्हारी  आँखें!

 

देखता हूँ  आठो  पहर  बस  तुम्हारी आँखे,

मुझको तो जान से प्यारी हैं तुम्हारी आँखें!

 

यों तो   गुम हैं  गुलशन  में   तुम्हारी   आँखें

ढूँढती  है  केवल  मुझको ही तुम्हारी आँखें!

 

बनाते  हो तुम बहाने क्यूँ दुश्मनी बेरुख़ी के,

लम्हा हुआ देखे जज़्बात भरी तुम्हारी आँखें!

 

बंद न करो प्रिय बेदर्द हुयी कजरारी आँखें,

देख लो समन्दर सी उफनती हैं मेरी आँखें!

 

बेक़रारी  चार  दिनों  की  है  तुम्हारी  रंजू,

देखा ही है जज़्बात  में  डूबी उनकी आँखें!