पश्चिम
बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से
प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके
सामने प्रस्तुत है रचनाकार संजय "सागर" गर्ग की एक कविता जिसका शीर्षक है “यह बारिश भी कितनी अजीब है":
यह बारिश भी कितनी अजीब है ना!!
जो बरस जाए तो ज़िन्दगी का एहसास दिलाती है
जो ठहर जाए तो सपनों की मंज़िल दिखाती है
कभी बरसती है बेवक्त यह
तो कभी चुपके से आती है।।
यह बारिश भी कितनी अजीब है ना!!
जो बरस जाय किसी रात में तो
किसी की यादों को महसूस करने को दिल चाहता है
सीने में छुपे हुए सपनों को
फिर से जिंदा करने को जी चाहता है ।।
यह बारिश भी कितनी अजीब है ना!!
जो बरस जाए किसी शाम तो
अपनी परछाई को भी धुंधला बना देती है
किसी के दिए चोट के निशानों को
फिर से तरोताजा और गहरे बना जाती है।।
यह बारिश भी कितनी अजीब है ना!!
जो बरस जाए किसी सुबह तो
उलझे सवालों को सुलझा जाती है
जिसकी बूंद - बूंद में अपनापन सा लगता है
एक बार मुस्कुराने को फिर से दिल चाहता है।।