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कविता: दाग/ कलंक (राधा गोयल,विकासपुरी, दिल्ली)

 

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार राधा गोयल की एक कविता  जिसका शीर्षक है “दाग/ कलंक":

दामन मैला करता कोई, दोषी औरत कहलाती है।
गाँवों में यह हाल है कि निर्वस्त्र घुमाई जाती है।
दोष पुरुष का होता है, औरत को कलंकिनी कहते हैं।
नारी ही नारी की दुश्मन,उनके स्वर मौन ही रहते हैं।
एक नारी की इज्जत से कुछ लोगों ने खिलवाड़ किया।
अपराध नहीं था उसका, पर अपराधी उसे करार दिया।
निर्वस्त्र दशा करके उसकी, चौड़े में उसे घुमाया था।
चुपचाप सभी देखते रहे , कोई स्वर न विरोध का आया था।
अपराध नहीं था उसका, लेकिन वो कलंकिनी कहलाई।
अपने मात पिता के घर भी शरण उसे न मिल पाई।
तब ही इक निश्चय कर डाला, इस बात का बदला लेना है।
आतताई को मार के, उसका दर्प चूर्ण कर देना है।
फूलनदेवी बनकर उसने उन सबको सबक सिखाया था
जिन व्यभिचारियों ने उसके दामन में दाग लगाया था।
चण्डी रणचण्डी बन ऐसों को सबक सिखाना ही होगा।
कुछ ठोस उपाय करने होंगे, चुपचाप नहीं सहना होगा।

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