पश्चिम
बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से
प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके
सामने प्रस्तुत है रचनाकार रविकान्त सनाढ्य की एक कविता जिसका शीर्षक है “जन-जन की आशा है हिन्दी !":
जन- जन की आशा है हिन्दी,
मन की अभिलाषा है हिन्दी ।
आओ इसका मान बढ़ाएँ,
हिन्दी है माथे की बिन्दी ।
हिन्दी का है ठाठ निराला ,
इसका वर्णक्रम है आला ।
इसके वर्ण बड़े ही सुन्दर ,
वैज्ञानिकता जिनके अन्दर ।
वर्णाकृति 'इ' , ' ट ' की देखो ,
'इमली' और 'टमाटर' पेखो ।
ठ' से जैसे खड़ा ठठेरा ,
ड ने डमरू - राग उगेरा ।
र ' की गाँठ है जैसे रस्सी ,
नहीं कहीं भी रस्साकस्सी।'
घड़ियाली 'घ ' सबै लुभाया ,
'न ' ने नल का भान कराया ।
'
ञ ' ढ' 'ण', भी सबके प्यारे,
उच्चारण अलबेला धारें ।
स्वर-व्यंजन सब सखा हमारे,
शिरोरेख सबको संभारे ।
यह न कहो कि हिन्दी हारी ,
वह तो अस्मिता है तुम्हारी ।
व्यंग्य करे यदि तुम पर कोई ,
कहे , तुम्हारी 'हिन्दी हो गई !
तो तुम तनिक नहीं घबराना,
हिन्दी का रुतबा बतलाना ।
दुनिया भर की चाहत हिन्दी,
सात समन्दर पार है हिन्दी ।
लोकप्रियता और बढ़ाओ,
हिन्दी की लौ सतत जलाओ ।
कहो गर्व से हम हैं,हिन्दी,
अपनी शान बढ़ाए हिन्दी ।
प्यारी हिन्दी, न्यारी
हिन्दी,
हम सबको है प्यारी हिन्दी ।
जय-जय-जय-जय,बोलो हिन्दी ,
जन -जन का गौरव है हिन्दी ।।
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