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कविता: जन-जन की आशा है हिन्दी ! (रविकान्त सनाढ्य, भीलवाड़ा, राजस्थान)

 

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार रविकान्त सनाढ्य की एक कविता  जिसका शीर्षक है “जन-जन की आशा है हिन्दी !":

जन- जन की आशा है हिन्दी,
मन की अभिलाषा है हिन्दी ।
 
आओ इसका मान बढ़ाएँ,
हिन्दी है माथे की बिन्दी ।
 
हिन्दी का है ठाठ निराला ,
इसका वर्णक्रम है आला ।
 
इसके वर्ण बड़े ही सुन्दर ,
 
वैज्ञानिकता जिनके अन्दर ।
 
वर्णाकृति '' , ' ' की देखो ,
'इमली' और 'टमाटर'  पेखो ।
 
' से जैसे खड़ा ठठेरा ,
ड ने डमरू - राग उगेरा ।
 
' की गाँठ है जैसे रस्सी ,
नहीं कहीं भी रस्साकस्सी।'
 
घड़ियाली '' सबै लुभाया ,
'' ने नल का भान कराया ।
 
' ' ' '', भी सबके प्यारे,
उच्चारण अलबेला  धारें ।
 
स्वर-व्यंजन सब सखा हमारे,
शिरोरेख सबको संभारे ।
 
यह न कहो कि हिन्दी हारी ,
वह तो अस्मिता है तुम्हारी ।
 
व्यंग्य करे यदि तुम पर कोई ,
कहे , तुम्हारी  'हिन्दी हो गई !
 
तो तुम तनिक नहीं घबराना,
हिन्दी का रुतबा बतलाना ।
 
दुनिया भर की चाहत हिन्दी,
सात समन्दर पार है हिन्दी ।
 
लोकप्रियता और बढ़ाओ,
हिन्दी की लौ सतत जलाओ ।
 
कहो गर्व से हम हैं,हिन्दी,
अपनी शान बढ़ाए हिन्दी ।
 
प्यारी हिन्दी, न्यारी हिन्दी,   
हम सबको है प्यारी हिन्दी ।
 
जय-जय-जय-जय,बोलो हिन्दी ,
जन -जन का गौरव है हिन्दी ।।

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