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लघुकथा: अंग्रेजी का फैशन (बिक्रम साव, कोलकाता, पश्चिम बंगाल)

 

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार बिक्रम साव की एक लघुकथा  जिसका शीर्षक है “अंग्रेजी का फैशन":

इमारत की बुनियाद ही उसकी मजबूती तय करता है। ठीक उसी प्रकार बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा की बुनियाद ही उनके भविष्य की इमारत को मजबूत बनाता है।
शहर में प्रारम्भिक शिक्षा में अंग्रेजी का फैशन ज़ोरो पर होता है।अरुण और पुष्पा जैसी दम्पत्ति भी शहर में रहने के कारण काफी अंग्रेजी से प्रभावित हुए थे। जहाँ देखो अंग्रेजी की ही मांग है दफ्तर में , बाज़ार में, शादी-विवाह जैसे समारोह में।इसलिए उनका पहला बेटा दीपक जब तीन वर्ष का हुआ तो उसके स्कूल में दाखिले को लेकर अरुण और पुष्पा चिंता करने लगे।
अरुण स्वयं चौथी कक्षा तक पढ़ा था और बड़ा बाज़ार के एक चूड़ी की दुकान में मजदूरी करता है । पुष्पा ने स्कूल का दर्शन तक नहीं किया था। शहर में बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा देने का जो फैशन चल रहा था इसलिए अरुण ने भी फैसला कर लिया कि जो भी हो वह अपने बेटे को अंग्रेजी स्कूल में ही पढ़वाएगा। उसके इस निर्णय में आस -पड़ोस के लोगों के भी राय शामिल थे। कुछ मामलों में हम केवल पड़ोसी की और समाज की ही चिंता करते है अपनी नहीं।
आखिरकार दीपक का नाम एक अच्छे अंग्रेजी माध्यम स्कूल में लिखवा दिया गया।स्कूल का मासिक फीस 2500 रुपए और ट्यूशन फीस अलग से। देखते देखते पाँच साल बीत गए। शुरुआत में अरुण को काफी दिक्कतें आई , तो उसने ओवर टाइम करना शुरू कर दिया, अपने साथ रह रहे माँ-बाप को गाँव भेजवा दिया और मेहनत मजदूरी करके अपना परिवार और बेटे पढाई लिखाई का खर्च चलाने लगा।लेकिन फिर भी उसकी आय दस हज़ार तक ही पहुँच पाई, उससे ज्यादा नहीं।
इधर इन पाँच सालों में दीपक के पल्ले ना अंग्रेजी पड़ी ना ही हिन्दी। यहाँ इन पाँच सालों में अरुण की हालत बहुत गम्भीर हो गयी , पुष्पा को दिन दिन कोई ना कोई रोग या समस्या होती रहती, और अरुण का दूसरा बेटा भी अब 3 साल का हो चला था। अरुण को समझ ना आता कि वह अपना सर फोड़ ले या सब कुछ छोड़कर अकेला गाँव चला जाए।
फिर यहाँ 5 साल पढ़ने के बाद भी दीपक कक्षा 1 में ही अटका पड़ा था। नर्सरी तो उसने एकबार में ही पास कर लिया था मगर किंडरगार्टन और कक्षा एक में दो-दो  बार फेल कर चुका था। उसे सभी अक्षर एक बराबर दिखाई देते , कविता के शब्द उसे समझ नहीं आते और कविता की रीडिंग तक वह कर नहीं पाता।
इसी बीच कक्षा एक में दीपक तीसरी बार फेल हो गया। परन्तु इस बार अरुण ने ना ही अपने भाग्य को गाली दी और ना ही पड़ोसियों की राय मानी बल्कि उसने फैसला कर लिया कि 'हिन्दी माध्यम या अंग्रेजी माध्यम में कोई अंतर नहीं, मैं अपने बेटे को हिन्दी माध्यम वाले स्कूल में ही पढ़ाऊंगा।'
और फिर क्या था उसने अपने दूसरे बेटे राहुल  का और दीपक का नाम एक हिन्दी माध्यम वाले स्कूल में लिखवा दिया । आज उन दोनों को हिन्दी माध्यम के स्कूल में पढ़ते हुए तीन साल हो गए, दीपक अभी तीसरी कक्षा में है और राहुल पहली कक्षा में। और अरुण को पश्चाताप इस बात का है कि वह अंग्रेजी के फैशन में क्यों फँस गया था।

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