पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी
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आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार राघवेन्द्र सिंह के दोहे जिसका शीर्षक है “गुरुकी महिमा":
प्रथम गुरु मुझ शिष्य की, ममता रूपी मात।
शिक्षा खान स्वरूप है, परिचय देत प्रभात।।
गुरु तरु सम होत है, देवत सबको छाँव।
रज चरण मस्तक धरो, ज्ञान वसत गुरु पाँव।।
गुरु कबहुँ न करत है, ऊँच-नीच में भेद।
आयुर्वेद संग देत है, अरु ज्ञान ऋग्वेद।।
गुरु खोजत है शिष्य में, नव चिंतन का ज्ञान।
निज हाथों से देत है, शिष्य अलग पहचान।।
ऐसा गुरु ही खोजिये, जो कुम्हार सम होय।
ज्ञान चाक रख शिष्य को, नव स्वरूप में जोय।।
गुरु की कटु वाणी बने, शिष्य हेतु मधु स्वाद।
जो चाखे मन प्रेम से, बनती आशीर्वाद।।
ज्यों चातक बन शिष्य भी, अम्बर रहा निहार।
शरद ऋतु की बूँद सम, गुरु बन गिरे फुहार।।
गुरु नीर सम होत है, सींचे सकल जहान।
नव अंकुर उपजत धरा, शिष्य देत महान।।
गुरु पूर्णिमा , गुरु दिवस, गुरु ईश का नाम।
एक दिवस नहीं हर दिवस, गुरु को करें प्रणाम।।
कोरा कागद होत शिष्य, मिले न मोल अमोल।
बन स्याही की लेखनी, गुरु बनावत अनमोल।।
गुरु बखान करता जगत, गुरु होत शिल्पकार।
छेनी से गुरु अद्भुत रचे, मनचाहा आकार।
शिक्षा खान स्वरूप है, परिचय देत प्रभात।।
रज चरण मस्तक धरो, ज्ञान वसत गुरु पाँव।।
आयुर्वेद संग देत है, अरु ज्ञान ऋग्वेद।।
निज हाथों से देत है, शिष्य अलग पहचान।।
ज्ञान चाक रख शिष्य को, नव स्वरूप में जोय।।
जो चाखे मन प्रेम से, बनती आशीर्वाद।।
शरद ऋतु की बूँद सम, गुरु बन गिरे फुहार।।
नव अंकुर उपजत धरा, शिष्य देत महान।।
एक दिवस नहीं हर दिवस, गुरु को करें प्रणाम।।
बन स्याही की लेखनी, गुरु बनावत अनमोल।।
छेनी से गुरु अद्भुत रचे, मनचाहा आकार।