पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार राधा गोयल की एक कहानी जिसका शीर्षक है “यादों के झरोखे से":
सन् 1975 की वह खौफनाक
दोपहर।आज भी उसे याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
तड़ातड़ गोलियों की आवाज़... जो तुर्कमान
गेट से शुरु हुई और लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल तक आ रही थीं।
अस्पताल
के सारे मुख्य द्वार बंद कर दिए गए थे। डर के मारे कोई भी बाहर नहीं निकल
पा रहा था, क्योंकि लगातार गोलियों की बौछार हो रही थी।समझ
नहीं आ रहा था क्या माजरा है?
वहाँ नौकरी करने वाले मुश्किल से गोलियों
की बौछार खत्म होने के बाद छुपते- छुपाते, संकरी गलियों में होते
हुए अपने घर पँहुचे।पन्द्रह मिनट का रास्ता दो घण्टे में पार किया। बाद में पता
लगा कि तुर्कमान गेट पर जो एक छोटी सी मस्जिद बनी हुई थी और उसी के सामने एक
मजार.... ....जिसके कारण हर समय रास्ता जाम रहता था।पहाड़गंज, रामलीला मैदान से आने वाली सभी बसें भी तुर्कमान गेट से होकर गुजरती
थीं।अजमेरी गेट की तरफ से आने वाली सभी रिक्शा , पैदल लोग तुर्कमान से
होकर आसफ अली रोड तक आते थे या जय प्रकाश नारायण हॉस्पिटल जाते थे।इतना जबरदस्त
जाम रहता था कि एक- एक घंटे तक निकलना मुश्किल हो जाता था।आलम यह था कि पैदल चलने
वाले रिक्शा पर चढ़- चढ़कर सड़क पार करते थे।
तत्कालीन सरकार की सोच थी कि उस मस्जिद को
तीन मंजिला बना दिया जाएगा, लेकिन इस तरह बनाया जाएगा कि थोड़ी सी ही
तोड़कर सीध में आ सके जिससे कि रास्ता भी न रुके।
कुछ वर्ग विशेष के लोग वहाँ बहुतायत में
रहते थे, जिनकी चार- चार बीवियाँ थीं और उन चार-चार बीवियों के एक ही
खाविन्द से बीस बाईस बच्चे , जो नंग- धड़ंग घूमते रहते थे। कई बार तो चूहे
की पूँछ को धागे में बाँधकर उसे घुमा रहे होते थे।यह दृश्य रोजाना ही देखने को मिल
जाता था। खैर बात हो रही थी उस दिन की गोलियों की...
जिन लोगों को उसी इलाके से गुजरना होता था
या नौकरी करने जाते थे, उनके लिए बहुत बड़ी समस्या पैदा हो गई।वहाँ के
निवासी तो घर में कैद होकर रह गए थे।रोजमर्रा की वस्तुओं की भी किल्लत हो गई थी, क्योंकि हिन्दुओं के दिलों में दहशत थी।
शुक्र है कि मदर
डेयरी पर दूध डबलरोटी मिल जाती थी लेकिन वह लेने जाते समय भी साँस गले में अटकी
रहती थी।
ऑफिस जाने वालों को ऑफिस की तरफ से बाकायदा
पास दिए गए, जिनको गले में लटका कर चलते थे। पूरे एक महीने
का कर्फ्यू लगा दिया गया। वैसे तो पुरानी दिल्ली में आए दिन छोटी-छोटी बातों पर
कर्फ्यू लगता ही रहता है। किसी मस्जिद की एक ईंट भी उखाड़ लो तो कोहराम मच जाता
है।
दंगे फसाद हो
जाते हैं।
आगजनी और कत्लेआम
हो जाता है....
और कर्फ्यू लग
जाना तो आम बात है।
बात हो रही थी सन् 1975 की। जिन लोगों को चूड़ीवालान से तुर्कमान गेट तक जाना होता था, वे गले में पास लटकाकर जैसे- तैसे उस रास्ते को पार करते थे या फिर लंबा
रास्ता पार करके अजमेरी गेट से होकर जाते थे। शुक्र है कि जगह- जगह पुलिस तैनात
रहती थी, उससे थोड़ा संतोष रहता था कि कोई हमलावर हमला नहीं कर सकता
था, लेकिन वह एक महीना किस तरह निकला, उसका दर्द वही समझ सकता है जिसने वो दर्द झेला।
अब तो वह मस्जिद भी तीन मंजिला बन गई
है। छोटे-छोटे कबूतरखाने में रहने वाले सात- सात परिवार एक साथ रहते थे, यानि कि सात दम्पत्ति(सात भाई और उनकी सात पत्नियाँ), उनके बच्चे.......
सभी को इंद्रलोक में प्रति परिवार दो -दो
कमरे +रसोई और एक-एक दुकान मिल गई है। यानी कि जो सात दंपत्ति एक कमरे में रहते थे, उनको एक कमरे के बजाय कुल मिलाकर चौदह कमरे, सात रसोई और सात दुकानें
अलग से मिल गई हैं (जो कभी एक रसोई एक कमरे के दड़बे में रहते थे)।
क्या किसी और वर्ग विशेष के लिए सरकारों
ने ऐसा सोचा?
एक ही समुदाय विशेष को ऐसी सहूलियतें
किसलिए?
उनकी पत्नियों को भी ₹6000 माह पेंशन,जिसकी फिराक में पुरूष चार- चार शादियाँ करते
हैं। मुफ्त में चौबीस हजार रुपए मिल जाते हैं। घर पर बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाते हैं
और मुफ्त की रोटियाँ तोड़ते हैं। चार- चार बीवियों के साथ गुलछर्रे उड़ाते हैं और
जनसंख्या को विस्फोट की स्थिति तक ले आते हैं।
अब मानसिकता कुछ बदल गई हो तो पता नहीं
क्योंकि सभी हिन्दू परिवार वहाँ से पलायन कर चुके हैं। केवल उनका व्यवसाय वहीं पर
है।


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