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कविता: हिंदी की पीड़ा (सरस्वती उनियाल, विकासनगर, देहरादून, उत्तराखंड)

 

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार सरस्वती उनियाल की एक कविता  जिसका शीर्षक है “हिंदी की पीड़ा":

 मेरे घर पर विदेशी का कब्जा, 
 फिर भी मैं जिंदी हूँ ।
क्योंकि मैं हिंदी हूंँ ।
मुझ में उद्गम कई उप भाषाओं का, 
फिर क्यों तोड़ा स्वप्न मेरी आशाओं का, 
सोचा था आजादी पाने पर, 
मैं खूब फलूंँगी फूलूंँगी, 
पर स्वप्नवत् ये आभास नहीं था, 
यूं दुविधा में झूलूँगी ।
घर मेरा ,पर अधिकार विदेशी, 
क्यों नहीं अपनाते हिंदी स्वदेशी।
 साहित्य जगत की  रवि शशि हूंँ, 
हर घर आंगन रची बसी हूंँ ,
घर में रहकर कड़ी प्रतिस्पर्धा ,
फिर भी मैं जिंदी हूं, 
क्योंकि मैं हिंदी हूंँ। 
भारतेंदु ,मैथिली, महादेवी ,
प्रसाद ,पंत ,निराला ।
इन्होंने मुझको पोषण दे कर, 
खूब सींचा पाला ।
अब आई है बारी तुम्हारी, 
तुम इतिहास दोहराओ, 
खुद हिंदी में बोलो -लिखो ,
 और औरों को भी सिखाओ ।
भोजपुरी ,अवधी ,बुंदेली और ब्रजभाषा                                             
बघेली,राजस्थानी ये सब मेरी उपभाषा                                                       
इनका भी सम्मान करो तुम ,
मैं इनमें भी जिंदी हूं ।
क्योंकि मैं हिंदी हूंँ। 
कहानी,कविता,नाटक,संस्मरण,
निबंध ,आत्मकथा ,जीवनी ,
इन सब विधाओं ने मिलकर,
मुझको दी संजीवनी। 
आलोचना,व्यंग्य और प्रहसन की तो,
 कुछ बात ही है निराली  
इनके द्वारा कवि लेखकों ने ,
गूढ़ बात सरलता से कह डाली ।
अपने विविध रूप विधाओं में ,
मैं आज भी जिंदी हूं। 
क्योंकि मैं हिंदी हूं ।
मुझ में साहित्य सृजन करो तुम 
मेरा परचम जग में लहराओ  
मैं ही हूंँ पहचान तुम्हारी ,
राष्ट्रभाषा का सम्मान दिलाओ ।
बाहर वालों का सम्मान करो,  
पर घर की जननी ना बिसराओ। 
मैं देववाणी की जाई ,
मेरी जगह न कोई ले पाई ।
मैं गर्वित, मैं प्रकाशित ,
मैं प्रिय भारत माँ की बिंदी हूंँ ।
क्योंकि मैं हिंदी हूंँ। 

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