पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार महिमा शुक्ला की एक कविता जिसका शीर्षक है “रौशनी”:
हर तरफ अंधेरा है .
मायूसी फैली है.
हर कोई मजबूर है
वो लाचार मजदूर हैँ
ना कोई आसरा है.
ना कोई रास्ता है
जीवन की चाह तो है.
जीविका की राह नहीं.
ये मुसीबत जीने नहीं देती
कोई तरकीब भी चलती नहीं.
मौत का डर रहने नहीं देता.
खाली पेट चलने नहीं देता.
घायल पाँव में ताक़त बाकी नहीं रही..
जीने की हूक तो उठती रही
निराश आँखों में आयी एक रौशनी.
नाजुक उम्र की बेटी ने जब हाथ बढ़ाया.
कहती बाबा, ना रोओ बार बार.
पत्थरो के शहर में ना होगा गुज़ारा .
चलो चल पड़े उस राह पर
जहाँ तुमने राही को राह दिखाई.
यहाँ ना कोई अपना है.
सब बन गये पराये.
तुमने पसीना बहाया है यहाँ.
पर तेरी भूख का है ना कोई मोल.
मैं ले चलूंगी तुम्हे उस ठौर.
जहां राह तकती है माँ रोज़ रोज़
नाजुक हूँ, बाली है उम्र मेरी.
पर मैं मज़बूत बेटी हूँ तेरी.
हज़ारों चल पड़े हैँ जिस राह .
उम्मीद बांधी है मैंने भी आज.
मान लो मेरा कहना बाबा मेरे.
हिम्मत करके चल पड़ो साथ तुम मेरे.
अब तक पाला है तुमने मुझे.
ना देख सकती लाचार मैं तुम्हे.
आंसू पौंछ कर उठ गया वो लाचार पिता.
बेटी तो बन गयी जैसे आज उसकी माता
बांध गठरी चल पड़ा हज़ारों के भीड़ में.
साइकिल चला रही बेटी वो राह में.
सब देख रहे ये अचरज मुड़ मूड के.
देखा नहीं किसी ने ऐसा मंज़र पहले कभी.
बेटी बनी बेटा ना पहले कभी.
ये हौंसला है , आता है फ़र्ज़ से..
प्यार से ना क़र्ज़ है किसी का, है एक ये रौशनी.


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