पश्चिम
बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से
प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके
सामने प्रस्तुत है रचनाकार वंदना तिवारी की एक कविता जिसका
शीर्षक है “क्या छूट गया”:
क्या है जो पीछे छूट गया ?
कुछ तो है भीतर टूट गया ।
कुछ रिश्ते- नाते प्रेम-सिक्त
अब हृदय-भित्ति सूनी, विरक्त
कुछ स्वप्न भरे थे भावों से
अब चिन्ह रह गए घावों के
क्या कोई 'अपना' रूठ गया ?
कुछ तृष्णा मन में शेष अभी
स्मृतियों के अवशेष अभी
कुछ बैठे छिपकर कोने में
जो खुश थे "मैं" के होने मे
बढ़ने का साहस टूट गया ।
कुछ यादें अब भी सहलातीं
स्नेहिल- सी थपकी दे जातीं
आँचल में नेह छुपा करके
लोरी का राग सुना जाती
वह दामन भी अब छूट गया ।
बचपन के आँगन में दुबके
कुछ कोमल-प्रमुदित सपने थे
आगे बढ़ते सोपानो में
अंगुली छूटी और पाँव बढ़े
बचपन धीरे से रूठ गया ।
तरुणाई की चंचलता में
स्पंदित वैभव अपने थे
आशा की डोर प्रफुल्लित थी
आदर्श स्थापित करने थे
पर समय रेत- सा छूट गया ।
एक युवा सूर्य उल्लास लिए
सुगठित जीवन की प्यास लिए
बढ़ता राहों में द्रुत गति से
कुछ विशिष्टता की आस लिए
एक साथी पथ में छूट गया ।
दृढ़ता थी प्रौढ़ विचारों में
कुछ लोभ स्वार्थ के बाडो़ं मे
यह तेरा था , वह मेरा था
आगे फिर गहन अंधेरा था
रिश्तों का दामन छूट गया ।
जब जर्जर होती थी काया
तब और सताती थी माया
जीवन से जो अनुबंध किए
मन भाग रहा उनको पाने
पर...सब कुछपीछे छूट गया ।
क्या है जो चुभता है हर पल?
क्या है जो हृदय सालता है ?
अवसान सृजन का निश्चित है,
क्या है जो शाश्वत रहता है ?
जो सृजित हुआ ,सब टूट
गया ।
आयु , समय बहती धारा
इनको न कोई बाँध पाया
भीतर भर लो अहसासों को
कुछ स्नेह- स्निग्ध निःश्वासों को
फिर न कहना कुछ छूट गया
कुछ था जो भीतर टूट गया ।
क्या है जो पीछे छूट गया ?
अब हृदय-भित्ति सूनी, विरक्त
कुछ स्वप्न भरे थे भावों से
अब चिन्ह रह गए घावों के
क्या कोई 'अपना' रूठ गया ?
स्मृतियों के अवशेष अभी
कुछ बैठे छिपकर कोने में
जो खुश थे "मैं" के होने मे
बढ़ने का साहस टूट गया ।
स्नेहिल- सी थपकी दे जातीं
आँचल में नेह छुपा करके
लोरी का राग सुना जाती
वह दामन भी अब छूट गया ।
कुछ कोमल-प्रमुदित सपने थे
आगे बढ़ते सोपानो में
अंगुली छूटी और पाँव बढ़े
बचपन धीरे से रूठ गया ।
स्पंदित वैभव अपने थे
आशा की डोर प्रफुल्लित थी
आदर्श स्थापित करने थे
पर समय रेत- सा छूट गया ।
सुगठित जीवन की प्यास लिए
बढ़ता राहों में द्रुत गति से
कुछ विशिष्टता की आस लिए
एक साथी पथ में छूट गया ।
कुछ लोभ स्वार्थ के बाडो़ं मे
यह तेरा था , वह मेरा था
आगे फिर गहन अंधेरा था
रिश्तों का दामन छूट गया ।
तब और सताती थी माया
जीवन से जो अनुबंध किए
मन भाग रहा उनको पाने
पर...सब कुछपीछे छूट गया ।
इनको न कोई बाँध पाया
भीतर भर लो अहसासों को
कुछ स्नेह- स्निग्ध निःश्वासों को
फिर न कहना कुछ छूट गया
कुछ था जो भीतर टूट गया ।


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