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कविता: क्रूर सच तो यही है... (कंचन ज्वाला “कुंदन”, रायपुर, छत्तीसगढ़)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार कंचन ज्वाला कुंदनकी एक कविता  जिसका शीर्षक है “क्रूर सच तो यही है...”:

पहले कबीले पर रहते थे हम जंगलों में
नुकीले हथियार होते थे हमारे पास
जानवरों से रोज लड़ते थे जानवरों की तरह
मारकर खा जाते थे हम जानवरों को
कभी हम ही बन जाते थे जानवरों के निवाले
 
झूम खेती करते थे
खानाबदोश थे, घुमंतु थे
संघर्ष किया हमने सदियों से
खुद को स्थापित करते रहे
लगातार अनुकूलन साधते रहे
बार-बार, हर बार इस धरती पर
अब अन्य ग्रहों में भी जाने की तैयारी है हमारी
 
विलुप्त हो गए बड़े-बड़े डायनोसौर
देखो मगर हम आज भी जिंदा हैं
चाहे पहले से बदतर हो या पहले से बेहतर
मगर स्थापित किया है हमने खुद को हर हाल में
 
एक वक्त आया कि धीरे-धीरे जंगल घटता गया
हमने ही काटा जंगलों को अंधाधुंध
और हम भी कट गए जंगल से कोसों दूर
कंक्रीट का जंगल खड़ा कर लिया हमने
 
हम लोग बेतहाशा और बेतरतीब बढ़ते गए
मशरूम की तरह उगते गए इस धरती पर
आधी धरती को हमने ही ढँक लिया
 
फिर लड़ाई शुरू हुआ हमारी हमसे ही
एक-दूसरे से, तीसरे से चौथे से
कई भागों में बंटे हम
पात में, डाल में कटे हम
 
हम सबने थाम लिया अलग-अलग झंडा
हांकने वाला हांकता गया लेकर डंडा
ये जात-धर्म, ये वाद-प्रतिवाद
आखिर क्या है...?
आधुनिक कबीला ही तो है
फिर रहने लगे हैं हम अलग-अलग कबीलों में
 
शायद यही चक्र है
हम जंगली से सभ्य हुए
फिर असभ्य होते गए
और अब हम फिर से
हमारे ही बनाये हुए इस कंक्रीट के जंगल में
जंगली होने के मुहाने पर खड़े हैं
 
क्रूर सच तो यही है...
हम दोपाया पशु थे
दोपाया पशु हैं
और दोपाया पशु ही रहेंगे