उन्मुक्त पक्षियों संग उड़ना चाहूँ
(साझा काव्य-संग्रह ई-बुक)
पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद ग्रुप ऑफ फर्म्स" अपनी विविध शाखाओं के माध्यम से विश्व में अपनी पहचान बनाने का अथक प्रयास कर रहा है। हमारा "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" हिंदी साहित्य से जुड़े प्रतिष्ठित और नवोदित रचनाकारों को भी एक प्लेटफॉर्म देने की कोशिश कर रहा है। इसके लिए नि:शुल्क "लक्ष्यभेद हिंदी ई - पत्रिका" का प्रकाशन जारी है। इसके अलावा "लक्ष्यभेद 24x7 TV" चैनल के माध्यम से साहित्यिक प्रतिभाओं को आप सभी के सामने रखने में हम प्रयासरत हैं। साथ ही "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" द्वारा सशुल्क हिंदी एकल व साझा काव्य/ कहानी/ लघुकथा संग्रह आदि ई - बुक के माध्यम से प्रकाशित किया जाता है।
आपको यह सूचित करते हुए हमें अत्यंत हर्ष की अनुभूति हो रही है कि लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस द्वारा ‘उन्मुक्त पक्षियों संग उड़ना चाहूँ' साझा काव्य - संग्रह में देशभर के 44 रचनाकारों की दो कविताएं उनके सचित्र जीवन परिचय के साथ शामिल हैं। इन रचनाकारों का हार्दिक आभार। हम आप सभी के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं।
यदि इस ई - बुक साझा काव्य संग्रह में किसी भी तरह की त्रुटि रह गई हो तो इसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। आप सभी का सहयोग भविष्य में भी बना रहें, ऐसी ही आकांक्षा है। तो आइए हम सभी मिलकर एक स्वस्थ समाज के निर्माण में अपनी भूमिका अवश्य निभाए।
धन्यवाद।
संस्थापक
संपादकीय
" काश मैं पक्षी बन जाती, उन्मुक्त गगन में विचरण कर पाती"
--- यह पंक्ति नारी जीवन की उस व्यथा को उजागर करती है, जहां वह खुद को न जाने कितने बंधनों में बंधा हुआ पाती है। सामाजिक मान्यताओं और थोपी गई परंपराओं को ढोते - ढोते उसका अपना अस्तित्व पूरी तरह से कब नष्ट हो जाता है, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। जिस देश में नारी कभी देवी समान पूजनीय मानी जाती थी, उसी देश में आज उसका हर ओर अपमान हो रहा है, वह सिर्फ भोग्य की वस्तु बनकर रह गई है। मां, बहन, पत्नी, बेटी बनकर न जाने कितनी भूमिकाओं को एक साथ निभाने वाली सृष्टि की इस जन्मदात्री को आज कुचला, नोचा, खसोटा जा रहा है। समाज के प्रति उसके योगदान को नकार कर लोग तरह - तरह की लांछनाएं लगाने के लिए ही तैयार रहते हैं। अरे ये भी तो सोचिए कि जिस आजाद जीवन की कल्पना पुरुष वर्ग ने की होगी, वैसी ही आजादी तो स्त्रियों के पल्ले भी पड़नी ही चाहिए थी, परन्तु समाज की दोहरी दृष्टि ही ऐसी है जिसमें पुरुषों के लिए कोई बंदिशे ही नहीं, सारे संस्कारों को वहन करने का ठेका जैसे स्त्रियों ने ही ले रखा है। कभी सोचिए, आखिर उसके भी तो कुछ सपने होंगे, उसे भी ख्वाब देखने का अधिकार तो है, उसे भी वह पतंग बनना है जो आकाश चूम सके, पर डोर को संभालने के बजाय उस डोर को ही काट दिया जाता है। अपने पंखों में हौसलों का उड़ान भरकर उसे भी उन्मुक्त रूप से विचरण करने दिया जाए। जब समानता का भाव अपनाकर नर नारी को एक जैसे सारे अधिकार प्राप्त होंगे तभी एक सुंदर संसार की कल्पना की जा सकती है ।
धन्यवाद।
संजय अग्रवाला
संपादक
जलपाईगुड़ी
04/10/2020
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Bank A/c Details
उन्मुक्त पक्षियों संग उड़ना चाहूँ
ISBN: 978-93-5416-367-8
मूल्य: ₹ 49
पृष्ठ संख्या: 145
संपादक: संजय अग्रवाला
प्रकाशक:
लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस
जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल
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