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कविता: चराग़, मां और बापू का बुझा दिया (डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह "सहज़", हरदा, मध्यप्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह "सहज़" की एक कविता  जिसका शीर्षक है “चराग़, मां और बापू का बुझा दिया”:

किस तरह से सहमी सहमी हैं,
ये नंन्ही सी  प्यारी तितलियां,
मुल्क में हो रहे इन हादशों ने,
हमें , खामोशियों से कह दिया,
तू बे वफ़ा है, जाते जाते  उसने,
ये हमको समझा के कह दिया,
कोई कुछ नहीं बोला, भीगती  ,
नम आंखों ने  दिल से कह दिया,
मेरे दिल में ही वो रहा करता था,
और ,साथ साथ  मुस्कुराता, था,
न जाने क्या ज़माने ने ,मुत्तालिक,
मेरे उस दिलरुबा से कह दिया,
डूब जाएगा  समंदर में, हौसला,
तूने  तोड़ दिया जो अपना,
लहरों ने न जाने क्यों चुपके से,
कानों में में नाखुदा से कह दिया,
कुछ न बोली मां, सर अपना ,
उसने धीरे से अपना
झुका लिया,
मैन झुकाया सर  अपना तो,फिर,
हाथ उसने मेरे माथे पे रख दिया,
दिल इनका मोहब्बतों से खाली है,
दर्द ,समझ मे इनको कहां आता है,
दहशत का मंज़र कहाँ है  , शहर में,
रहनुमाओं , के अंदाज़े ,हुनर ने कह दिया,
अंधा था , अब गूँगा ,और बहरा भी,
होता जा रहा है ," मुश्ताक़" आदमी,
इस मासूम की कटती हुई ,ज़ुबाँ,ने
सरे आम देश की जनता से कह दिया,
चराग़  मां और बापू का  बुझा दिया,
खुले आम किस तरह ददरिंदों ने,
खामोशियों की चादरों का भाव,
आसमानों तक पहुच  गए,
चैन व अमन है  मुल्क में हमारे,
रहबरों  ने मुस्कुरा के कह दिया,
कुर्सी, की सियासत कहाँ जा रही देखो,
देश में हो रही, हल  चलों ने कह दिया
,