पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार सत्यम घिमिरे "भुपेन्द्र" की "रक्तबीज काव्य शृंखला" की एक कविता:
|| रक्तबीज_८ ||
अन्धकार युग का
हुआ है अवतरण हर ओर
ज्ञान बन गया है
महज पैसो का व्यापार पुरजोर
पाठशालाओ मे बहती
है असत्य का रक्त बीज
भारत भारती पर
करता है तिक्ष्ण प्रहार रक्तबीज
यज्ञ मे मुनियो
का होता था दानव के हाथो हवन
वैसे ही शिक्षा
का होता है समिधा सहित हवन
मन कर्म वचन
ध्यान सब से तिरस्कृत मस्तिष्क
उपदेश देता है हर
घर मे अब यह रक्तबीज ।
सुनो सब कोई खोल
कर कान नाक मुह हाथ
क ख ग मे
"ख" का ही मिलता है पूरा ज्ञान
उ कि मात्रा से
फिर "न"व्यन्जन जुडता है
शब्द तब एक युग
विनाशकारी "खुन" बनता है
म्युनिसिपेलिटी
पाठशाला कमरे मे लटकी है बोर्ड
जिसके चारो ओर है
सिगरेट गुटको के खोल
सामने प्रिन्सिपल
के कमरे मे उलटी है कुर्सी
जिसके सामने है
चुहे के काटे हुये कापी किताब
मैदान मे चरते है
मास्टरो के बकरी गाय
छात्र उठाते है
गोबर पिते है गौ मुत्र
हस्तकला कि
प्रदर्शनी सबसे ज्यादा यही होती है
डास्टर किताब और
पढाई कैसे पचाई जाती है
इस बहुमुल्य
सरकारी पाठशाला का है मोल
मोटी कभी पलती
नाटी किताबे होती है गोल
जिसके पहले पेज
पर होता है खिचडी का चित्र
बीच मे "
रक्तबीज " अन्तिम मे सरकारी चित्र।
हर वार्ड मे होता
है एक सेक्रेटरी इन्चार्ज
जो दाखिला करता
है छात्रो का भरपुर
मगर मैने देखा
वही बच्चा रोज स्कुल आता है
जिसके घर मे खाना
बडी मुस्किल से मिलता है
और अच्छी यानी
प्राईवेट स्कुल कि पढाई
वही शिक्षक वहाँ
टाई पहन्कर पढाने जाता है
जो सरकारी स्कुल
मे शिक्षक नियुक्त होता है
उसे लगता है
सरकारी स्कुल मे बच्चा
केवल भुख मिटाने
खिचडी खाने आता है
गाव मे होता है
एक स्वर्निम पाठशाला गृह
जिसके कमरे मे
रात को बकरी गाय सोते है
स्कुल खुलती है
दोपहर तक गोबर सफाई होती है
फिर खिचडी खाकर
बच्चो कि छुट्टी होती है ।
जैसे ब्रम्ह ने
शिक्षा का मन्त्री सरस्वती को बनाया
वैसे ही रक्तबीज
ने भी शिक्षा का मन्त्रालय बनाया
जिसके वार्शिक अधिवेशन
का सभापती वह है
जो किताब शब्द मे
प्रयुक्त वर्ण नही बता पाता है
रक्तबीज योजन
बनाता है किताबे बनाने की
उपर से ही फरमान
आता है इस व्यवस्था का
इसलिये रक्तबीज
अपना बच्चा प्राइभेट पढाता है
जबकी वह इसी
सरकारी शिक्षा से पैसा पाता है
रक्तबीज को मिल गया
है ठेका पढाने सिखाने का
वो बस चुसना ही
सिखाता है, खाना सिखाता है
चाक डस्टर पेन
कपी कपडा स्कुलरशिप खिचडी
ज्ञान सब को एक
सान्स मे खाता पचाता है ।
रक्तबीज मधुसूदन
कृष्ण की निति अपनाता है
हस हस कर सब को
लुभाता ललचाता जाता है
डिउटी खत्म होते
ही टीऊसन पढाने जाता है
स्कुल मे दिन भर
खिचडी भात खाने जाता है
न वो क ख पढाता
है न ही जन गन मन
वो गाव मे बने
किसी स्कुल को चुनता है
जहाँ सप्ताह मे
एक दिन ही पढाने जाता है
जिस दिन जाता है
उस दिन खिचडी खाता है
टाई कोर्ट पहन कर
इत्र को अपनी काखी मे चेप
तन्ख्वाह सरकरी
लेता है निजी स्कुल चलाता है
वो बस एक ही जमात
को तैयार करता है
जो कुर्सी मे
सोकर योजना का लाभ उठाता है ।
पाटी खाता किताब
पर बुन्द बुन्द रक्त गिरता है
हर साल राजधानी
से नये फरमान मिलता है
मोटी मोटी प्रेस
कान्फ्रेन्स शिक्षा पर होती है
जिसका मैप पुर्वी
पाकिस्तान जैसे गायब होता है
तीन रंग का एक
झण्डा बाँस पर लटका है
जिसका तिनो रंग
मिटकर एक हुआ है
जिसपर लाल रंग का
लेप वही व्यक्ति लगता है
जो हमारे सामने
इसका गाना गाता है ।
रक्तबीज का यह
पूरा षड्यन्त्र रचा हुआ है
जिसमे हर कोई
हिस्सेदार प्रतिशत का है
जिसकी जेब मे
गान्धी का टकला चिपका है
हर एक कोने पर
रक्त कि बुन्द छिटकता है
इसका साथ देने के
लिये होता है समर
वो हर शक्स बहाता
है धारा खुन प्रपन्च का
जो बन्द कमरे मे
रात के उजाले मे नही
बल्की उजाले मे
शिक्षा का व्यापार चलाता है ।
वो आदमी इस
व्यवस्था का विरोध करने बैठा है
जो अपनी रिढ
रक्तबीज से युद्ध मे गवा चुका है
रक्तबीज खुन्खार
जड मजबुत करके बैठा है
उपर से निचे , शहर से गाव हर गली मे हर ओर।
विज्ञान दर्शन
कला वाणिज्य हो या नैतिकता
रक्तबीजी संस्कार
के बेडियो मे है जकडा
गरदन पर हाथ रख
ललकार के लिये है अडका
काली सा मर्दन
उसका कैसे होगा गरदन ।
नही उसका मर्दन
गर्दन से नही होगा
उसके पित पर वार
करना होगा
जडे खोद कर धरती
से उखाडना होगा
उसके शरीर से
बुन्द बुन्द रक्त शोषण होगा ।
ताण्डव समर अमर
धर्म ज्ञान के लिये
डम ड्म डम मृदन्ग
बजाकर नभ तिरोहित होगा
जैसे ही रक्तबीज
के साम्राज्य पर प्रहार होगा
पुष्पवृष्टी से
पहले रक्त का फुहार फुटेगा ।
गर्जन धोर डम डम
ताल बजाते मृदन्ग ढोल
जिने के लिये मौत
का फिर से जब समर होगा
तान्डव से रक्तबिज
का पाठशाला ध्वस्त होगा पाठशाला ध्वस्त होगा रक्तबीज कमजोर होगा
मस्तिष्क मे जो
अजेय आतंक भरता है
उसका दुकान जैसे
ही ध्वस्त त्रस्त होगा
उसकी जमात तिरतर
बितर इधर उधर होगा
फिर रक्त का
स्राव पहले से ज्यादा होगा ।
हवसी आदमी आदमी
आदमी आदमी आदमी
उसके मन तन
मस्तिष्क मे है एक पाठशाला
जिसके सिराओ मे
खुन ताण्ड्वी अलबेला
उसके खुन को
अन्दर ही अन्दर सुखाना होगा
इतना क्रोध अन्दर
ही अन्दर पालना होगा
जिससे कतरा कतरा
खुन सुख सके हर बार
रक्तबिज आये घर
द्वार पर जब इसबार
रक्तबीज सोच को
फोड कुचल मसल देना होगा
इस युग मे जहाँ
जहाँ जब जब होता है अत्याचार
सहने वाला पापी
कहलाता है कहलायेगा हर बार
कोई नही आता समर
करने दुसरो के लिये हर बार
खुद काली बन
रक्तबीज का करना होगा संहार ।
इस लिये लिखो
मन्त्र लिखो कविताये कहानी
रच दो अत्याचारी
का नाम पता ओर रुतबा
ये सप्तसती चन्डी
का पाठ नही ये बस कथा है
जहाँ रक्तबीज कि
महज पहचान कि गई है
रक्तबीज का
सन्हार बहुत कठिन है
पर नामुमकिन तो
कभी हो नही सकता है
मुर्दो कि सी
जिन्दगी मे जान कि फुक आता है
जैसे ही रुप रंग
मे यह रक्तबिज का नाम आता है।
हर अध्याय का एक
अलग महत्त्व हुआ करता है
शक्ल पेशा कोई भी
हो बिज तो रक्तबीज होता है
आगे कि कथा को
धृतराष्ट्र कि तरह मत पढो
इतना करो , खुद मे एक बार रक्तबीज ढुन्ढ लडो।