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कविता: संवेदना (विनीता सिंह चौहान, इंदौर, मध्यप्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार विनीता सिंह चौहान की एक कविता  जिसका शीर्षक है “संवेदना”:

जब विचारांकुर होते हैं प्रस्फुटित,
और जागृत होती है अंतर्चेतना।
जब बर्दाश्त से बाहर होती है स्थिति,
और बढ़ जाती है अंतर्वेदना।
प्रताड़ना इंसान को कर देती है पत्थर,
और मर जाती है संवेदना,
तब शायद बन जाती है कविता....
तब शायद बन जाती है कविता....
 
जब अंतर्वेदना करहाने लगे,
और इंसानियत मरने लगे,
तो समझो लोग संवेदनहीन हो गये,
तब से ही इंसानी रिश्ते मरने लगे।
 
गांव की सरजमीं पर,
अब शहर बसने लगे।
इंसानी स्वार्थ की खातिर,
हरे भरे वन कटने लगे।
आशियाने उजड़ गए,
जीव जंतु मरने लगे।
कलुष व तमस की नदी में,
इंसान धार के साथ बहने लगे।
और स्वार्थ सर्वोपरि हो गया
इंसान इंसान से डरने लगे।
झूठ, फरेब, अहम की महामारी से,
हर जगह लाशों के ढेर लगने लगे।
 
अमीर गरीब की खाई को पाट,
एक दूजे के आंसू पोंछते रहिए।
ऊंच - नीच का भेद मिटाकर,
मन में वेदना ना रहने दीजिए।
 
जीवन में उम्मीदों की लौ को,
मशाल बन कर जलने दीजिए।
प्रकाश पुंज आलोकित रहे सदा,
मन में अंतर्चेतना जगने दीजिए।
 
हृदय समरसता ना सूखे कभी,
नदी सा भावों को बहने दीजिए।
सूख गई जो धार बस रेत बनेगी,
मन को रेगिस्तान न बनने दीजिए।
 
रिश्ता कायम रखने के लिए,
संवेदना ना मरने दीजिए।
एक दूजे की मन की जमीं में,
अपनेपन का गीलापन रहने दीजिए।