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कविता: आज की नारी (अनामिका सिंह "करम", उत्तम नगर, दिल्ली)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार अनामिका सिंह "करम" की एक कविता  जिसका शीर्षक है “आज की नारी”:

उस दिन शाम को जब मैं

पहुँची अपने घर।

देखकर अपनी ..... माँ को

मैं तो रह गई दंग।।

 

होता प्रतीत किसी कानन में

लग गया दावानल।

गर्मियाँ .... सिंधु की छूते नभ

उठा ऐसा बड़वानल।।

 

ग़ायब थी .... पाजेब पाँव की

चूड़ियाँ नही थी .. हाथ।

मैं बुरी तरह से चौंक गई ...!

सलामत था .. उनका सुहाग।

 

सिंदुर नही था मांग में, ख़ाली

था उनका कान।

नाक में नथ भले न थी .... पर

उनके अधर पर थी मुस्कान।।

 

संकोचवश धीरे से पूछी...माँ

क्यों किया तुमने यह हाल।

निः संकोच ... उत्तर दिया माँ ने

नारी चेतना का है .. कमाल।।

 

अरे ..! तुमने अपने श्रृंगार को

फेंक बनाया कैसा रंग।

तौबा ...! नारी चेतना का, कैसा

है यह ढंग ...?

 

आओ .... बैठो .... ध्यान से, सुनो

मेरी बात।

पुरुष करते रहे अब तक .. नारी

जाति से घात।।

 

हमारे पाँव में डाल दी उसने, पेजनी

और पायल।

कभी सोचा क्या तुमने,करते हमको

ये कितना घायल।।

 

कोई नहीं ज़रूरत उनकी ... फेंक दी

हमने कंगन।

अब वे नहीं सकेंगे जान .... घर में हूँ

या आंगन।।

 

औरतों को क़ैद करने की, मर्दो की

थी ये चाल।

अब तक हुआ, अब न होगा, बदल

रहा है काल।।

 

नाम लें गौरी - सीता का, हमें किया

गुमराह।

बाहर पुरूष अट्टाहास करते,नारी

भरती रही यहीं आह ...!

 

कर्म हमारे रहे ... संकुचित,रख सके

वे नज़र।

इसी तरह ढाते रहे है .. पुरूष औरतों

पर क़हर।।

 

सुन कर ध्वनि .... पायल .. कंगन की

करते कान सतर्क।

किससे मिलने जा रही हो .. करते है

ये तर्क।।

 

आज से ... अभी से ... फेंक दी हमने

तोड़ दी अपनी बेड़ी।

मश्किल हो रही है .. असंभव है अब

सहन मर्दों की हेकड़ी।।