पश्चिम
बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से
प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद
हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके
सामने प्रस्तुत है रचनाकार कविता शर्मा की एक कविता जिसका
शीर्षक है “लौटने का ख्व़ाब”:
मेरे घर के बरामदे से दिखते हैं
कुछ छुटपुटे से पेड़
और दिख जाती है
सीमेंट के भरे पूरे जंगल
देखने में लगते हैं राजाओं के महल हैं
हर शाम चाय की प्याली लेकर
उन महलों की ओर देखती हूं
कोई रहता भी है या नहीं, मालूम नहीं
कोई आने जाने वाला भी नजर नहीं आता
उन्हीं इमारतों के बीच
दो-तीन और बन रही हैं इमारतें
इन बनती हुए इमारतों में
सुबह सूरज के उगने से पहले से लेकर
शाम ढल जाने के बाद देर रात तक
लोग करते हैं काम
पूरे विश्व में लॉकडाउन छाया हुआ है
मुझे अभी बरामदे से बाहर देखने की फुर्सत मिली है
कोई ईंट जोड़ता हुआ नजर आता है
तो कोई सीढ़ियों में संगमरमर बिछाता हुआ
कितने अच्छे कारीगर हैं
जिनमें कूट - कूट कर कला भरी हुई है
और जिन्हें कामचोरी बिल्कुल नहीं आती
किस का क्या नाम है
आज तक हमें मालूम नहीं
लोग उन्हें मजदूर कहते हैं
लोग रेखाओं के खेल में विश्वास रखते हैं
क्या ? उनके हाथों में नहीं है रेखाएं
या फिर उस सीमेंट और पत्थर से
उनकी हाथों की रेखाएं छिल चुकी हैं
इस बढ़ती हुई महामारी में
उनको भी अपने घर वालें बुलाते होगें
अपने घर
उनको हर रात अपनी मां के आंचल
याद आती होगी
उनके भी छोटे - छोटे बच्चे होंगे
जो उन्हें बाबा कह कर बुलाते होंगे
हर रोज की रोजी से कुछ बचा कर
वह भी अपनी पत्नी की कलाई में
सजाना चाहते होंगे सावन की हरी चूड़ियां
वह भी अपने बच्चों को भेजना चाहते होंगे
बड़े - बड़े स्कूलों और कॉलेजों में
वह भी अपनी बूढ़ी मां की आंखों में
फिर से रोशनी भरना चाहते होंगे
दूसरों का महल खड़ा कर
अपनी झोपड़ी में लौटने का ख़्वाब
हर रोज उनकी आंखों में झिलमिलाता है
इसी ख्व़ाब को पूरा करने के लिए
दिन रात इकट्ठा करते हैं वो
और मुझे डर लगता है
कहीं यह महामारी उनसे उनका ख़्वाब न छीन ले।
मेरे घर के बरामदे से दिखते हैं
कुछ छुटपुटे से पेड़
और दिख जाती है
सीमेंट के भरे पूरे जंगल
देखने में लगते हैं राजाओं के महल हैं
हर शाम चाय की प्याली लेकर
उन महलों की ओर देखती हूं
कोई रहता भी है या नहीं, मालूम नहीं
कोई आने जाने वाला भी नजर नहीं आता
उन्हीं इमारतों के बीच
दो-तीन और बन रही हैं इमारतें
इन बनती हुए इमारतों में
सुबह सूरज के उगने से पहले से लेकर
शाम ढल जाने के बाद देर रात तक
लोग करते हैं काम
पूरे विश्व में लॉकडाउन छाया हुआ है
मुझे अभी बरामदे से बाहर देखने की फुर्सत मिली है
कोई ईंट जोड़ता हुआ नजर आता है
तो कोई सीढ़ियों में संगमरमर बिछाता हुआ
कितने अच्छे कारीगर हैं
जिनमें कूट - कूट कर कला भरी हुई है
और जिन्हें कामचोरी बिल्कुल नहीं आती
किस का क्या नाम है
आज तक हमें मालूम नहीं
लोग उन्हें मजदूर कहते हैं
लोग रेखाओं के खेल में विश्वास रखते हैं
क्या ? उनके हाथों में नहीं है रेखाएं
या फिर उस सीमेंट और पत्थर से
उनकी हाथों की रेखाएं छिल चुकी हैं
इस बढ़ती हुई महामारी में
उनको भी अपने घर वालें बुलाते होगें
अपने घर
उनको हर रात अपनी मां के आंचल
याद आती होगी
उनके भी छोटे - छोटे बच्चे होंगे
जो उन्हें बाबा कह कर बुलाते होंगे
हर रोज की रोजी से कुछ बचा कर
वह भी अपनी पत्नी की कलाई में
सजाना चाहते होंगे सावन की हरी चूड़ियां
वह भी अपने बच्चों को भेजना चाहते होंगे
बड़े - बड़े स्कूलों और कॉलेजों में
वह भी अपनी बूढ़ी मां की आंखों में
फिर से रोशनी भरना चाहते होंगे
दूसरों का महल खड़ा कर
अपनी झोपड़ी में लौटने का ख़्वाब
हर रोज उनकी आंखों में झिलमिलाता है
इसी ख्व़ाब को पूरा करने के लिए
दिन रात इकट्ठा करते हैं वो
और मुझे डर लगता है
कहीं यह महामारी उनसे उनका ख़्वाब न छीन ले।