पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंस" से प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिका" के वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार “जयश्री बिरमी” का एक लघुलेख जिसका शीर्षक है “गुरु गोविंद दोनो खड़े काको लागू पाय”:
आज सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन के उपलक्ष में हम शिक्षाकदीन मनाते हैं।विश्व के कुछ देशों में भी दुनियां के शिक्षकों मान देने के लिए भी मनाया जाता हैं।जो विद्यादान करता हैं के सम्मान के लिए आज के दिन विद्यार्थी खुद शिक्षक बन शिक्षकों का कार्य करते हैं,वर्ग में पढ़ाते हैं।ये उनके लिए एक अनुपम अनुभव हैं।
अपने देश में गुरु का स्थान
भगवान से भी ऊंचा कहा गया है। गुरु की
भक्ति करी जाती थी।अर्जुन से भी एकलव्य की भक्ति थी।ऐसे तो अनेक उदाहरण है इतिहास
में।स्वामी रामदास और शिवाजी महाराज, चाणक्य और चंद्रगुप्त ,कई उदाहरणों से भरा पड़ा है हमारा इतिहास।
क्या आज हम इन गुरु शिष्य के
समकक्ष गुरु या शिष्य पा सकते है क्या?नही ,आज
शिष्य को गुरु के प्रति सम्मान नहीं, नाहीं गुरु को सिर्फ ज्ञान देने से मतलब है,व्यवसाईक
बन रही है दुनिया,जब
पाठशाला में पढ़ाया जाता है तो भी ट्यूटर रखना फैशन हो गई है,स्टेटस
सिंबल हो गया है। नाही गुरु को शिष्य से लगाव और शिष्य को गुरु के लिए आदर है।अपने
गुरु परशुराम की निद्रा भंग न हो इसलिए
कर्ण ने भंवरे का उसकी जंग को कुतर ने का दर्द सह लिया था,क्या वो
आसन था?
ये एक उदाहरण है
चरणदास की दो बड़ी शिष्याये थी अगाध प्रेम था अपने गुरु से दयाबाई और सहजोबाई।
चरणदास सुखदेव मुनि के शिष्य थे, दीक्षा के बाद 12 साल अग्यातवास में चले गए। 12 साल बाद दिल्ली में प्रगट हुए। दोनो शिष्यओ में एक तो उनके भाई केशवचंद की बेटी थी और सहजोबाई राजस्थान से आती थी।उसका हमेशा निवेदन रहता के गुरु उसकी कुटिया को पावन करे।
चरणदास सुखदेव मुनि के शिष्य थे, दीक्षा के बाद 12 साल अग्यातवास में चले गए। 12 साल बाद दिल्ली में प्रगट हुए। दोनो शिष्यओ में एक तो उनके भाई केशवचंद की बेटी थी और सहजोबाई राजस्थान से आती थी।उसका हमेशा निवेदन रहता के गुरु उसकी कुटिया को पावन करे।
जब एक दिन गुरु ने कह ही दिया की
तुम मेरी रrह
देखना शुरू करो मैं कभी भी आ जाऊंगा।गुरु प्रेम में दीवानी ने अपने
हाथों से आसन बुना और राह देख रही थी।
और एक दिन चमत्कार हो ही गया,एक और
से भगवान सूर्यनारायण उपर आ रहे थे ,एक और से प्रभु आ रहे थे और दूसरी और से गुरु आ रहे थे।अब
द्विधा ये हुई कि बैठने वाले दो और आसान एक,गुरुजी को आसन दिया और प्रभु के हाथ में पंखा रख दिया ,
कहा कि गुरु को हवा जलो,गर्मी
बहुत है।गुरु की सेवा में परमात्मा को लगा
दिया था । उन्हों ने लिखा है –राम तजु
पर गुरु न विसारू, गुरु के
सम हरी न निहारू।हरी ने रोग भोग उर्रजायो गुरु ने जोगी कर अबे ही छुटायो, ऐसा लिखा है सहजोबाई ने,राम को
तो मैने तस्वीरों में देखा है गुरु तो साक्षात सह शरीर देखा है। इसे गुरु भक्ति कहते है। गुरु अपार सागर
है बस गढ़ा खोद के रखो और गुरु द्वारा अर्जित ज्ञान से भर दो। गुरु द्वारा दिया गया ज्ञान बीज को
बो लो, समय आने
पर वटवृक्ष बन जायेगा। शायद ये आजकल के नौ जवानों में समझ
आए।