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कविता: कैसे गाएं गीत मल्हार (राघवेंद्र सिंह, लखनऊ, उत्तर प्रदेश)

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के
 "लक्ष्यभेद पब्लिकेशंससे प्रकाशित होने वाली सर्वप्रथम हिन्दी डिजिटल फॉर्मेट की पत्रिका "लक्ष्यभेद हिंदी ई-पत्रिकाके वेब पोर्टल पर आपका स्वागत है। आज आपके सामने प्रस्तुत है रचनाकार राघवेंद्र सिंह की एक कविता  जिसका शीर्षक है “कैसे गाएं गीत मल्हार”:
               
बेसुध पड़ी धरा है कहती कितने सावन बीत गए
जो अंकुर फूटे थे कोमल खोकर वे मनमीत गए
बहने को आतुर आँसू थे हुए भीतर भीतर तप्त विकल
वो प्रतिबिंब हुआ धूमिल सा मचा रहा जो मन हलचल
ऋतु बसंत के पुष्पों में भी नहीं रहा सोलह श्रृंगार
आज कवि बस इतना कहता कैसे गाएँ गीत मल्हार
नहीं रही पुरवा बयार जो देती मन को शीतलता
खग विहग बेचैन हो उठे देखी उनकी जो आतुरता
प्रलय मची जल थल पर इतनी चली गई मन चंचलता
बाहर के आघातों से अंदर का भाव रहा जलता
न दिया रही न ही बाती अब कैसे छाँटे अंधकार
आज कवि बस इतना कहता कैसे गाएँ गीत मल्हार
ऊषा की किरणें भी कुंठित रजनी भी अब घबराये
पुष्प सुमन सब हुए शिथिल भ्रमरों से वे डर जाये
मखमली रात भी न जाने खो गई प्रयोजन हेतु कहीं
प्रेम पयोधर अंबर के सो गए अभिमान हेतु कहीं
क्या जल और क्या थल में चहुँ ओर मचा है हाहाकार
आज कवि बस इतना कहता कैसे गाएँ गीत मल्हार
नदी सिंधु को खोज रही और हम नदियों को खोज रहे
आज प्रकृति व्याकुल है जहाँ हम सदियों तक रोज रहे
खेतों की अग्नि धधक रही ले प्यासे नयन वे तरस रहे
उठी कलम जब भी कवि की वे वेदना ही बरस रहे
तन-मन सब है व्याकुल कैसे कहें जीवन का सार
आज कवि बस इतना कहता कैसे गाएँ गीत मल्हार